Aham Brahmasmi
महावाक्य से उन उपनिषद वाक्यो का निर्देश है जो स्वरूप में लघु है, परन्तु बहुत गहन विचार समाये हुए है। प्रमुख उपनिषदों में से इन वाक्यो को महावाक्य माना जाता है –
- अहं ब्रह्मास्मि – “मैं ब्रह्म हूँ” ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० – यजुर्वेद)
- तत्त्वमसि – “वह ब्रह्म तू है” ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )
- अयम् आत्मा ब्रह्म – “यह आत्मा ब्रह्म है” ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ – अथर्ववेद )
- प्रज्ञानं ब्रह्म – “वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है” ( ऐतरेय उपनिषद १/२ – ऋग्वेद)
प्रत्येक वेद से एक ही महावाक्य लेने पर उपरोक्त चार ही महावाक्य माने गए हैं, किन्तु वेद ऐसे कई गूढ़ वाक्यों से भरे पड़े हैं इसलिए इनके अलावा भी कई वाक्यों को महावाक्य या उनके समकक्ष माना गया है।[1]
- सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् – “सब ब्रह्म ही है” ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद )
उपनिषद के यह महावाक्य निराकार ब्रह्म और उसकी सर्वव्यापकता का परिचय देते हैं। यह महावाक्य उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे दिव्यस्वरूप है, आत्मस्वरूप है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी। जहां-जहां ईश्वर की सृष्टि का आलोक व विस्तार है, वहीं-वहीं उसकी पहुंच है। वह परमात्मा का अंशीभूत आत्मा है। यही जीवन का चरम-परम पुरुषार्थ है।
उपनिषद के ये महावाक्य मानव जाति के लिए महाप्राण, महोषधि एवं संजीवनी बूटी के समान हैं, जिन्हें हृदयंगम कर मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है।
कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद “शुकरहस्योपनिषद ” में महर्षि व्यास के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश ‘ब्रह्म रहस्य’ के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य ये हैं-
- ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म,
- ॐ अहं ब्रह्मास्मि,
- ॐ तत्त्वमसि, और
- ॐ अयमात्मा ब्रह्म
प्रज्ञानं ब्रह्म
इस महावाक्य का अर्थ है- ‘प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।’ वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम ‘मोक्ष’ को प्राप्त कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही ‘ब्रह्म’ है।
अहं ब्रह्माऽस्मि
इस महावाक्य का अर्थ है- ‘मैं ब्रह्म हूं।’ यहाँ ‘अस्मि’ शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कह उठता है।
तत्त्वमसि
इस महावाक्य का अर्थ है-‘वह ब्रह्म तुम्हीं हो।’ सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय ‘ब्रह्म’ ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को ‘तत्त्वमसि’ कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।
अयमात्मा ब्रह्म
इस महावाक्य का अर्थ है- ‘यह आत्मा ब्रह्म है।’ उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को ‘अयं’ पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही ‘आत्मा’ है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित ‘आत्मतत्त्व’ है।
अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते हैं- ‘हे शुकदेव ! इस सच्चिदानन्द- स्वरूप ‘ब्रह्म’ को, जो तप और ध्यान द्वारा प्राप्त करता है, वह जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।’
भगवान शिव के उपदेश को सुनकर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये।
हमारे चार वेद कौनसे हैं? चार वेद
ऋग वेद, यजुर्वेद, अथर्व वेद और सामवेद.
ऋग वेद सबसे प्राचीन है सबसे पहला है. विभिन्न ऋषियों ने इसके विभिन्न खंडों कि रचना कि है. इसमें इंद्र वायु अग्नि आदि प्रकृति के देवो कि अस्तुति है. देवों को सीधे परमेश्वर से प्राप्त मना गया है. इनको श्रुति कहा गया है. इनके साहित्य जैसे ब्राह्मण, उपनिषद आदि को मिलाकर वैदिक साहित्य मना गया है. श्रुति और स्मृति दोनों मिलकर वैदिक साहित्य बना है जिसमे रामायण महाभारत पुराण आदि शामिल है. मीमांसा सम्हिता उपवेद वेदांग भी वैदिक साहित्य का भाग है.
ब्रह्मा जी के चार ओरस पुत्रो को जिन्हे ब्रह्मा जी ने सर्व प्रथम पैदा किया था भी चार जिन्दा वेद कहा गया है जिन नाम सनत सनातन सनन्दन और सनद है. चित्र नीचे दिया है. हर एक ब्रह्म पुत्र एक वेद का प्रतिक है.
हमारे चार वेद कौनसे हैं? चार वेद
ऋग वेद, यजुर्वेद, अथर्व वेद और सामवेद.
ऋग वेद सबसे प्राचीन है सबसे पहला है. विभिन्न ऋषियों ने इसके विभिन्न खंडों कि रचना कि है. इसमें इंद्र वायु अग्नि आदि प्रकृति के देवो कि अस्तुति है. देवों को सीधे परमेश्वर से प्राप्त मना गया है. इनको श्रुति कहा गया है. इनके साहित्य जैसे ब्राह्मण, उपनिषद आदि को मिलाकर वैदिक साहित्य मना गया है. श्रुति और स्मृति दोनों मिलकर वैदिक साहित्य बना है जिसमे रामायण महाभारत पुराण आदि शामिल है. मीमांसा सम्हिता उपवेद वेदांग भी वैदिक साहित्य का भाग है.
ब्रह्मा जी के चार ओरस पुत्रो को जिन्हे ब्रह्मा जी ने सर्व प्रथम पैदा किया था भी चार जिन्दा वेद कहा गया है जिन नाम सनत सनातन सनन्दन और सनद है. चित्र नीचे दिया है. हर एक ब्रह्म पुत्र एक वेद का प्रतिक है.
• ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में सबसे पुराना वेद है ।
• ऋग्वेद का अर्थ है – ऋग – प्रशंसा और वेद – ज्ञान
• इसमे तरह तरह की प्रार्थनाए,यज्ञ और शादी के दौरान बोलने वाले श्लोक और बहुत सारी लोक कथाओं का भी उल्लेख है ।
• यह वेद 1100 – 1700 बी.सी. में लिखा गया था ।
• ऋग्वेद भारतीय-यूरोपीयन भाषा परिवार में लिखा गया है ।
• इसमें १० मंडल,१०२८ सूक्त और १०६२७ मंत्र हैं ।
• यजुर्वेद का अर्थ है – यजुर् – पूजा /आराधना और वेद का अर्थ जैसे कि ऊपर लिखा है-ज्ञान ।
• यजुर्वेद को अक्सर ऋग्वेद के बाद दूसरा वेद माना जाता है – इसमें ऋग्वेद के ६६३ मंत्र पाए जाते हैं ।
• यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘’यजुस’’ कहा जाता है ।
• यजुर्वेद में दो शाखाए हैं – दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद ।
• चारों वेदों में से यजुर्वेद के लेखन पौराणिक ऋषिओ द्वारा सबसे ज़्यादा बोले गए है ।
• ऋग्वेद की तुलना में यजुर्वेद के लेख समझने हेतु ज़्यादा आसान है ।
• सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके १८७५ मन्त्रों में से ६९ को छोड़ कर सभी ऋग्वेद के हैं ।
(आपको प्रश्न होगा कि अगर सामवेद मुख्य रूप से ऋग्वेद के ही भाग है ,तो फिर इसके लिए अलग वेद क्युं ? – फर्क इतना है कि सामवेद ऐसे लिखा गया है,जैसे कोई गीत या कविता लिखी गयी हो)
• सामवेद का अर्थ है – साम यानी कि गीत और वेद का तो आप जानते ही है ।
• सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है।
• इस वेद की इतनी प्रतिष्ठा का कारण इसका श्रीमद्भगवदगीता में श्रीकृष्ण भगवान द्वारा उल्लेख है ।
• सामवेद में ऐसी बातों का उल्लेख था जिसे वैज्ञानिक आज खोज रहे है,
• उदाहरण- इन्द्र ने पृथ्वी को घुमाते हुए रखा है, चन्द्र के मंडल में सूर्य की किरणे विलीन हो कर उसे प्रकाशित करती हैं ।
• इसका अर्थ है – अथर्व ऋषि के द्वारा लिखा गया वेद ।
• अथर्ववेद में कुल 20 मंडल,731 सूूक्त तथा 5839 मंत्र हैं ।
• अथर्ववेद में औषिधि प्रयोग, तंंत्र-मंंत्र, जादू-टोना, रोगनिवारण, तथा वशीकरण जैसे विषयों का विवरण है ।
• इस वेद को ‘ब्रह्मवेद’ भी कहते है ।
• अथर्ववेद में ‘जीवाणु विज्ञान’ तथा ‘औषधियों’ आदि के विषय की भी जानकारी दी गई है ।