Bhargav Brahman Vansh भृगुवंशी ब्राह्मण ऋषि भार्गव जाति का इतिहास
भृगु कुल के वंशज भार्गव कहलाए भृगु से भार्गव, च्यवन, और्व, आप्नुवान, जमदग्नि, दधीचि आदि के नाम से गोत्र चले। यदि हम ब्रह्मा के मानस पुत्र भृगु की बात करें तो वे आज से लगभग 9,400 वर्ष पूर्व हुए थे। इनके बड़े भाई का नाम अंगिरा था। अत्रि, मरीचि, दक्ष, वशिष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कर्दम, स्वायंभुव मनु, कृतु, पुलह, सनकादि ऋषि इनके भाई हैं। ये विष्णु के श्वसुर और शिव के साढू थे। महर्षि भृगु को भी सप्तर्षि मंडल में स्थान मिला है। पारसी धर्म के लोगों को अत्रि, भृगु और अंगिरा के कुल का माना जाता है। पारसी धर्म के संस्थापक जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना गया है। पारसियों का धर्मग्रंथ ‘जेंद अवेस्ता’ है, जो ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है। (ब्रह्मा और सरस्वती से उत्पन्न पुत्र ऋषि सारस्वत थे। एक मान्यता अनुसार पुरूरवा और सरस्वती से उत्पन्न पुत्र सरस्वात थे। समस्त सारस्वत जाती का मूल ऋषि सारस्वत है। कुछ लोगों अनुसार दधीचि के पुत्र सारस्वत ऋषि थे। दधीचि के पिता ऋषि भृगु थे और भृगु के पिता ब्रह्मा। एक अन्य मान्यता अनुसार इंद्र ने ‘अलंबूषा’ नाम की एक अप्सरा को दधीचि का तप भंग करने के लिए भेजा। दधीचि इस समय देवताओं का तर्पण कर रहे थे। सुन्दरी अप्सरा को वहाँ देखकर उनका वीर्य रुस्खलित हो गया। सरस्वती नदी ने उस वीर्य को अपनी कुक्षी में धारण किया तथा एक पुत्र के रूप में जन्म दिया, जो कि ‘सारस्वत’ कहलाया।)
भार्गव कुल प्रवर्तक महर्षि भृगु ऋग्वेद काल के ऋषि हैं। ब्रह्मा ने सृष्टि के सृजन एवं विकास की आकांक्षा से नो मानस पुत्रों को अपने शरीर से उत्पन्न किया जिनमें से एक भृगु भी थे। महर्षि भृगु को ब्रह्मा द्वारा किये गये यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न माना जाता है। वरूण ने इन्हें दत्तक पुत्र बनाया। अतएव इनका नाम भृगुवारणी भी पड़ा। महषि भृगु की सन्तानें भार्गव कहलाई। हम लोग अपने को भृगु ऋषि के पुत्र च्यवन के वंशज मानते हैं जिनकी तपो भूमि वधूसर नदी के किनारे ढोसी की पहाड़ी पर थी और इस नदी व पहाड़ी के नाम से ही हम लोग ढंसर या ढूसर भार्गव ब्राह्मण कहलाये जो कि अब अपने नाम के साथ केवल भार्गव शब्द का ही प्रयोग करते हैं।
वैदिक साहित्य के अनुसार प्राचीन काल में भारतवर्ष के समस्त ब्राह्मण एक ही जाति में सम्मिलित थे – बाद में ये मूल सात वंशों में विभाजित हो गये जिनके नाम हैं – भार्गव, अंगिरस, अत्रेय, कश्यप, वशिष्ठ, आगस्त्य और कौशिक ये सातों वंश ऋषियों के नाम से जुडे़ हुए हैं। भृगु वंश ब्राह्मण वर्ण में प्राचीनतम है। उसके पश्चात निवास के प्रांतों के अनुसार भी ब्राह्मणों का नामकरण हुआ। सरस्वती नदी के आसपास के ब्राह्मण सारस्वत कहलाये, गौड़ प्रदेश(आधुनिक हरियाणा के आसपास) में रहने वाले गौड़, कान्य-कुब्ज या कन्नौज के आस-पास के कान्य-कुब्ज, मिथला अथवा बिहार के मैथिल, उत्कल अथवा उड़ीसा के उत्कल कहलाये। इसी प्रकार विन्ध्य के दक्षिण में रहने वाली पाँच ब्राह्मण जातियाँ गुर्जर(गुजरात),महाराष्ट्र(महाराष्ट्र), तैलंग(आन्ध्रप्रदे), कर्णाट(कर्नाटक) और द्रविड़(तमिलनाडु तथा केरल) हैं। कालांतर में ये सभी ब्राह्मण जातियाँ अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं में विभक्त हो गई। इसी क्रम में गौड़ ब्राह्मणों का एक समूह अपने में एक पृथक जाति के रूप में अपना अस्तित्व रखने लगे और च्यवनवंशीं ढूसर भार्गव कहलाने लगे।
मान्यता है कि अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। जरथुस्त्र ने इस धर्म को एक व्यवस्था दी तो इस धर्म का नाम ‘जरथुस्त्र’ या ‘जोराबियन धर्म’ पड़ गया।
महर्षि भृगु की पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो उनके भाई दक्ष की कन्या थी। इसका मतलब ख्याति उनकी भतीजी थी। दक्ष की दूसरी कन्या सती से भगवान शंकर ने विवाह किया था। ख्याति से भृगु को 2 पुत्र दाता और विधाता मिले और 1 बेटी लक्ष्मी का जन्म हुआ। लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान विष्णु से कर दिया था।
भृगु पुत्र धाता के आयती नाम की स्त्री से प्राण, प्राण के धोतिमान और धोतिमान के वर्तमान नामक पुत्र हुए। विधाता के नीति नाम की स्त्री से मृकंड, मृकंड के मार्कण्डेय और उनसे वेद श्री नाम के पुत्र हुए। पुराणों में कहा गया है कि इन्हीं से भृगु वंश आगे बढ़ा। भृगु ने ही भृगु संहिता की रचना की। उसी काल में उनके भाई स्वायंभुव मनु ने मनु स्मृति की रचना की थी। भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है। भार्गवों को अग्निपूजक माना गया है। दाशराज्ञ युद्ध के समय भृगु मौजूद थे।
भृगु ऋषि के 3 प्रमुख पुत्र थे उशना, शुक्र एवं च्यवन। उनमें से शुक्र एवं उनका परिवार दैत्यों के पक्ष में शामिल होने के कारण नष्ट हो गया। इस प्रकार च्यवन ऋषि ने भार्गव वंश की वृद्धि की। महाभारत में च्यवन ऋषि का वंश क्रम इस प्रकार है। च्यवन (पत्नी मनुकन्या आरुषी), और्व, और्व से ऋचीक, ऋचीक से जमदग्नि, जमदग्नि से परशुराम। भृगु ऋषि के पुत्रों में से च्यवन ऋषि एवं उसका परिवार पश्चिम हिन्दुस्तान में आनर्त देश से संबंधित था। उशनस् शुक्र उत्तर भारत के मध्य भाग से संबंधित था। इस वंश ने निम्नलिखित व्यक्ति प्रमुख माने जाते हैं- ऋचीक और्व, जमदग्नि, परशुराम, इन्द्रोत शौनक, प्राचेतस और वाल्मीकि। वाल्मीकि वंश के कई लोग आज ब्राह्मण भी हैं और शूद्र? भी। ऐसा कहा जाता है कि मुगलकाल में जिन ब्राह्मणों ने मजबूरीवश जनेऊ भंग करके उनका मैला ढोना स्वीकार किया उनको शूद्र कहा गया। जिन क्षत्रियों को शूद्रों के ऊपर नियुक्त किया गया उन्हें महत्तर कहा गया, जो बाद में बिगड़कर मेहतर हो गया।
भार्गव वंश में अनेक ब्राह्मण ऐसे भी थे, जो कि स्वयं भार्गव न होकर सूर्यवंशी थे। ये ब्राह्मण ‘क्षत्रिय ब्राह्मण’ कहलाए। इमें निम्नलिखित लोग शामिल हैं जिनके नाम से आगे चलकर वंश चला। 1. मत्स्य, 2. मौद्गलायन, 3. सांकृत्य, 4. गाग्यावन, 5. गार्गीय, 6. कपि, 7. मैत्रेय, 8. वध्रश्च, 9. दिवोदास। -(मत्स्य पुराण)। क्षत्रिय जो भार्गव वंश में सम्मिलित हुआ, वह भरतवंशी राजा दिवोदास का पुत्र मित्रयु था। मित्रयु के वंशज मैत्रेय कहलाए और उनसे मैत्रेय गण का प्रवर्तन हुआ। भार्गवों का तीसरा क्षत्रिय मूल का गण वैतहव्य अथवा यास्क कहलाता था। यास्क के द्वारा ही भार्गव वंश अलंकृत हुआ। खैर…।
दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया। अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महर्षि भृगु भगवान विष्णु को शाप देते हैं कि तुम्हें स्त्री के पेट से बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके बाद महर्षि अपनी पत्नी ख्याति को अपने योगबल से जीवित कर गंगा तट पर आ जाते हैं तथा तमसा नदी का निर्माण करते हैं।
धरती पर पहली बार महर्षि भृगु ने ही अग्नि का उत्पादन करना सिखाया था। हालांकि कुछ लोग इसका श्रेय अंगिरा को देते है। भृगु ने ही बताया था कि किस तरह अग्नि को प्रज्वलित किया जा सकता है और किस तरह हम अग्नि का उपयोग कर सकते हैं इसीलिए उन्हें अग्नि से उत्पन्न ऋषि मान लिया गया। भृगु ने संजीवनी विद्या की भी खोज की थी। उन्होंने संजीवनी बूटी खोजी थी अर्थात मृत प्राणी को जिंदा करने का उन्होंने ही उपाय खोजा था। परंपरागत रूप से यह विद्या उनके पुत्र शुक्राचार्य को प्राप्त हुई। भृगु की संतान होने के कारण ही उनके कुल और वंश के सभी लोगों को भार्गव कहा जाता है।
भार्गव इतिहास में भार्गव वंश के आदि प्रवर्तक महर्षि भृगु के काल से लेकर सन् 1773 के अन्त तक का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।
ऋग्वेद तथा परवर्ती वैदिक साहित्य से स्पष्ट ज्ञात होता है कि आर्यों में जाति पांति का बन्धन नहीं था। वे सब अपने को एक ही जाति का मानते थे। परन्तु जिस प्रकार इंग्लैंड आदि पश्चिमी देशों में जन समुदाय तीन वर्गों में विभक्त माना जाता है उसी प्रकार वैदिक काल में भी आयो में तीन वर्ग थे। यज्ञ हवन करने कराने वाले ब्राह्मण कहलाते थे, जिन में मंत्रों के रचयिता ऋषि पद प्राप्त करते थे। राजा और उसके भाई बेटे क्षत्रिय कहलाते थे। शेष सब आर्य विश् कहलाते थे जिसका अर्थ साधारण जन है।
ब्राह्मणों के आज जितने गोत्र पाये जाते हैं वे सब वैदिक काल के सात मूल वंशों की ही शाखा-प्रशाखा हैं। ये सात वंश भार्गव, आंगिरस, आत्रेय, काश्यप, वसिष्ठ, आगस्त्य और कौशिक हैं। इनमें सबसे प्राचीन भार्गव, आत्रेय और काश्यप हैं जिनके प्रवर्तक भृगु, अत्रि और काश्यप नामक ऋषि थे, जो वैदिक युग के आरम्भ में हुए थे, और वैवस्वत मनु के समकालीन थे। महिर्ष भृगु अग्नि क्रिया के प्रवर्तक होने के कारण अथर्वन् और अंगिरस् भी कहलाते थे। इसीलिए इनके वंशज प्रारंभ में भार्गव और आंगिरस दोनों नामों से प्रसिद्ध थे। परन्तु कुछ समय बाद भृगुवंश की एक शाखा ने आंगिरस नाम से एक स्वतंत्र वंश का रूप धारण कर लिया अत: शेष भार्गवों ने अपने को आंगिरस कहना बन्द कर दिया। इस प्रकार आंगिरस वंश का चौथे ब्राह्मण वंश के रूप में उदय हुआ। कुछ शताब्दियों बाद बसिष्ठ नामक एक ऋषि ने वासिष्ठ वंश का प्रवर्तन किया। वसिष्ठ के ही भाई अगस्त्य ने आगस्त्य वंश का प्रवर्तन किया। इन्हीं दोनों के समकालीन विश्वामित्र थे जो पहले राजपुत्र थे। उन्होंने ब्राह्मण बनकर एक नये वंश का प्रवर्तन किया जो उनके पितामह कुशिक के नाम पर कौशिक कहलाया।
ये सातों वंश बाह्य विवाही थे अर्थात् किसी भी एक वंश का पुरुष उसी वंश की कन्या से विवाह नहीं कर सकता था। कालान्तर में भार्गवों और आगिरसों की संख्या में वृद्धि होने के कारण वे दोनों वंश दो दो गणों में विभक्त हो गये। बाद में इन दोनों वंशों में से प्रत्येक में कुछ क्षत्रिय सिम्मलित हो गये। भार्गवों में समय समय पर चार क्षत्रिय सम्मिलित हुए और आंगिरसों में पांच क्षत्रिय सम्मिलित हुए। अत: भार्गवों में छ: गण और आंगिरसों में सात गण हो गये। शेष पांच वंश भी बाद में गण कहलाने लगे। इस प्रकार ब्राह्मणों में अट्ठारह गण हो गये। प्रत्येक गण वाहृय विवाही हो गया अर्थात् एक गण का व्यक्ति अपने से भिन्न गण में ही विवाह कर सकता था।
दूसरा
क्षत्रिय जो भार्गव वंश में सिम्मलित हुआ वह राजा दिवोदास का पुत्र मित्रयु था। मित्रयु के बंशज मैत्रेय कहलाये और उनसे मैत्रेय गण का प्रवर्तन हुआ।
भार्गवों का तीसरा क्षत्रिय मूल का गण वैतहव्य अथवा यास्क कहलाता था। यास्क के द्वारा ही भार्गव वंश अलंकृत हुआ। इन्होंने निरूक्त नामक ग्रन्थ की रचना की। परशुराम के शत्रु सहस्रबाहु के प्रपौत्र का नाम वीतहव्य था। उसका कोई वंशज पुरोहित बनकर भार्गवों में सिम्मलित हो गया और उसके वंशज वैतहव्य अथवा यास्क कहलाने लगे।
भार्गवों का चौथा क्षत्रिय मूल का गण वेदविश्वज्योति कहलाता है। इसका इतिहास ज्ञात नहीं है। इस प्रकार भार्गवों में छ: गण हो गये। गण वहिविवाही वर्ग को कहते है, अर्थात् एक गण के व्यक्ति आपस में विवाह नहीं कर सकते थे।
भृगु की अड़तीसवीं पीढ़ी में गृत्समद का नाम आता है। गृत्समद प्रसिद्ध राजा दिबोदास के समकालीन थे। वे एक विख्यात ऋषि थे और ऋग्वेद के द्वितीय मंडल के सूक्त उन्हीं के रचे हुए हैं। गृत्समद के पुत्र का नाम कूर्म था और उन्हीं के परिवार के एक ऋषि का नाम सोमाहुति था।
च्यवन बड़े प्रसिद्ध ऋषि थे। उनका विवाह राजा शयीति की पुत्री सुकन्या से हुआ। इनके च्यवान तथा वसन दो पुत्र थे। च्यवान के सुमेधा नामक पुत्री और अप्नवान् तथा प्रमाति नामक पुत्र हुए। सुमेधा का विवाह महिर्ष कश्यप के पौत्र निध्रुप से हुआ। अप्नवान का विवाह राजा नहुष की पुत्री और ययाति की बहिन रुचि से हुआ। अप्नवान और प्रमति से भृगुवंश आगे बढ़ा।
प्रमति के वंश में रूरू नामक ऋषि हुए। रूरू के वंशज शुनक ने आंगिरस वंश के शौन होत्र गोत्री गृत्समद को गोद ले लिया जिसके फलस्वरूप गृत्समद शौनक हो गये और उनसे शौनक गण प्रवर्तित हुआ। अप्नवान के वंश में ऊर्व नायक प्रसिद्ध ऋषि हुए। उर्व के पुत्र का नाम ऋचीक था। ऋचीक का कान्य-कुब्ज राजा गाधि की पुत्री, महिर्ष विश्वामित्र की बहन, सत्यवती से विवाह हुआ। ऋचीक और सत्यवती के पुत्र महिर्ष जमदग्नि थे। जमदग्नि विश्वामित्र के भानजे थे, और ऋग्वेद में कुछ सूक्तों की रचना दोनों ने मिलकर की थी।
भार्गवों के इन छ: गणों में आप्नवान गण के सदस्यों की संख्या सबसे अधिक थी। अत: आप्नवान गण तीन पक्षों में विभाजित हो गया जिनके नाम वत्स, बिद और आर्ष्टिषेण थे। अन्य गण भी पक्ष कहलाने लगे। इस प्रकार भार्गवों में आठ पक्ष हो गये। प्रत्येक पक्ष भी अनेक गोत्रों में विभाजित हो गया। कभी-कभी भिन्न भिन्न पक्षों, गणों अथवा वंशों में समान नाम के गोत्र भी मिल जाते थे। उदाहरण के लिए गाग्र्य गोत्र भार्गवों और आगिरसों दोनों में पाया जाता है। ऐसी दशा में यह निश्चय करना कठिन हो जाता था कि इस प्रकार के गोत्र वाला मनुष्य किस वंश अथवा किस गण का सदस्य है। इस उलझन को दूर करने के लिए प्रत्येक गोत्र के साथ प्रवरों की व्यवस्था की गई। प्रवर का अर्थ श्रेष्ठ होता है। जब किसी गोत्र का व्यक्ति अपने प्रवरों अर्थात् श्रेष्ठ पूर्वजों के नामों का भी उल्लेख कर देता है तो कोई उलझन नहीं हो सकती।
भार्गवों के आठ पक्षों के प्रवर इस प्रकार हैं। वत्स पक्ष के प्रवर भृगु, च्यवन, अप्नवान, ऊर्व और जगदग्नि हैं। विद पक्ष के प्रवर भृगु, च्यवन, अप्नवान, ऊर्व और बिद हैं। आर्ष्टिषेण पक्ष के प्रवर भृगु, च्यवन, अप्नवान आर्ष्टिषेण और अनूप हैं। शौनक पक्ष के प्रवर भृगु, शुनहोत्र और गृत्ममद हैं। वैन्य पक्ष के प्रवर भृगु, वेन और पृथु हैं। मैत्रेय पक्ष के प्रवर भृगु, वध्यश्व और दिवोदास हैं। यास्क पक्ष के प्रवर भृगु, वीतहव्य और सावेतस हैं। वेदविश्वज्योति पक्ष के प्रवर भृगु, वेद और विश्व ज्योति हैं।
जमदग्नि का विवाह इक्ष्वाकु वंश की राजकुमारी रेणुका से हुआ। जमदग्नि और रेणुका के महातेजस्वी राम नामक पुत्र हुए जो शत्रुओं के विरुद्ध परशुधारण करने के कारण परशुराम नाम से विख्यात हुए। परशुराम एक महान ऋषि थे, और महान योद्धा भी। इनका उल्लेख सभी पौराणिक पुस्तकों में मिलता है- (रामायण और महाभारत) में भी। उन्होंने जहां सहस्रबाहु को पराजित करके अपनी वीरता का परिचय दिया वहीं ऋग्वेद के दशम मंडल के 110 वें सूक्त की रचना करके अपनी विद्वता का परिचय दिया। इन्हीं असामान्य गुणों से प्रभावित होकर बाद की पीढ़ियों ने उन्हें साक्षात् भगवान विष्णु का अवतार मान लिया।
हम भार्गवों के वर्तमान गोत्र दो गणों में से निकले हैं। बत्स (वछलश), कुत्स (कुछलश), गालव (गोलश) और विद (विदलश) तो अप्नवान गण के अन्तर्गत है। शेष दो अर्थात् काश्यपि (काशिप) और गाग्र्य (गागलश) यास्क गण के अन्तर्गत हैं।
इस काल के प्रारम्भ में वेदव्यास के शिष्य वेशम्पायन नामक प्रसिद्ध भार्गव विद्वान हुए जो यजुर्वेद के आचार्य थे और जिन्होंने राजा जनमेजय को महाभारत की कथा सुनाई थी। दूसरे भार्गव विद्वान शौनक थे, जिनका नाम अथर्ववेद की एक शाखा से जुड़ा हुआ है। शौनक ने ऋग्वेद प्रातिशाख्य, अनुक्रमणी और बृहददेवता की भी रचना की थी। इस काल के कई प्रसिद्ध भार्गवों ने (1000 ई0पू0-500 ई0पू0 वैदिक साहित्य के सम्पादन और वेदांग साहित्य की रचना में अतुलित योगदान दिया।
इसी युग में भृगुवंश में तीन ऐसी विभूतियां हुई जिन्होंने संस्कृत साहित्य के तीन भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में ऐसे ग्रन्थ रचे जो विश्व के साहित्य में बहुत ऊंचा स्थान रखते हैं। इनमें सर्वप्रथम वाल्मीकि है। रामायण, महाभारत, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण और विष्णु पुराण जैसे- प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार वाल्मीकि भृगुवंशी थे। इन ग्रन्थों की पुष्टि ईसा की प्रथम शताब्दी के बौद्ध कवि अश्वघोष ने अपने `बुद्धचरित´ में यह कह कर की है कि जो काव्य-रचना च्यवन न कर सके वह उनके वंशज वाल्मीकि ने कर दिखाया।
इस युग की दूसरी विभूति जिससें भार्गव वंश अलंकृत हुआ, यास्क थे। यास्क ने निरूक्त नामक ग्रन्थ की रचना करके विश्व में पहली बार शब्दव्युतपत्ति अथवा (Etymolog) पर प्रकाश डाला।
इस काल की तीसरी विभूति जिससे भार्गव वंश गौरवान्वित हुआ पाणिनि थे। पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण पर अपनी अद्भुत पुस्तक `अष्टाध्यायी´ की रचना की।
चौथी शताब्दी ई.पू.के उत्तरार्ध में भारतीय इतिहास का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित हुआ जिसका संस्थापक महाबली चन्द्रगुप्त मौर्य थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरू और मौर्य साम्राज्य के प्रधानमंत्री और संचालक विष्णुगुप्त चाणक्य नामक महान राजनीतिज्ञ थे, जो कौटिल्य गौत्र के भार्गव थे। चाणक्य ने अर्थशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ रचा जो संस्कृत के राजनीति शास्त्र विषयक ग्रन्थों में सर्वोच्च स्थान रखता है।
इसी समय में रचित `कामसूत्र´ के लेखक वात्स्यायन भी भार्गव थे।
मौर्य युग के बाद दूसरी शताब्दी ई.पू.में शुंग-युग की ही रचना है। `मनुस्मृति´ से ज्ञात होता है कि उसके रचयिता भी एक भार्गव थे।
स्कृत की सभा के सातवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन रत्न और संके प्रसिद्ध गद्य काव्य प्रणेता बाण-वत्स गोत्र के भार्गव थे। इन्होंने दो प्रसिद्ध गद्य काव्य लिखे `कादम्बरी´ और `हर्षचरित´।
प्राचीन काल के अन्तिम प्रसिद्ध भार्गव जिन्होंने लड़खड़ाते हुए वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया और अद्वैत-वेदान्त दर्शन का प्रवर्तन किया 788 ई.में केरल में उत्पन्न हुए। 32 वर्ष की आयु में अपनी रचनाओं से सारे विश्व को चमत्कृत कर दिया। ये महात्मा शंकराचार्य थे। उनके उपनिषदों, ब्रह्म सूत्र और भगवद्गीता पर रचे काव्य उनकी विद्वता के पुष्ट प्रमाण है।
भरत खंड में महिर्ष भृगु ने तपस्या की थी उस स्थल को भृगु क्षेत्र कहते हैं, यही अपभ्रंशित होकर `भड़ौच´ हो गया। इसमें निवास करने वाली सभी जातियां भार्गव कहलाती हैं। महिर्ष भृगु से जो वंश बढ़ा वह भार्गव कहलाया। और जो उससे अलग थे, वे भार्गव क्षत्रिय : भार्गव वैश्य आदि कहलाए।
महिर्ष भृगु ने अपनी श्री नाम की कन्या का पाणिग्रहण श्री विष्णु भगवान से किया था। उस समय ब्रह्मा जी के सभी पुत्र, ऋषि एवं ब्राह्मण उपस्थित हुए। विवाहोपरान्त श्रीजी ने भगवान विष्णु से कहा- इस क्षेत्र में 12000 ब्राह्मण है, जो ब्रह्मपद की कामना करते हैं, इन्हें मैं स्थापित करूंगी और 36,000 वैश्यों को भी स्थापित करूंगी। और जो भी इतर जन होंगे वे भी भृगु क्षेत्र में निवास करेंगे उन सबकी अपने-अपने वर्णों में भार्गव संज्ञा होगी। भगवान विष्णु ने `एवमस्तु´ कहा।
इस प्रकार भारतवर्ष में भृगुवंशी भार्गव, च्यवन वंशी भार्गव, औविवंशी भार्गव, वत्सवंशी भार्गव, विदवंशी भार्गव, निवास करते हैं। ये सभी भृगुजी की वंशावली में से `भार्गव´ है। उत्तरीय भारत में च्यवनवंशी भार्गव है। गुजरात में भार्गव जाति के चार केन्द्र है, भड़ौंच, भाडंवी, कमलज और सूरत।
भिन्न-भिन्न क्षेत्र के भार्गव भिन्न-भिन्न नामों से जाने जाते हैं, जो इस प्रकार है- मध्यप्रदेशीय भार्गव- इनके गोत्र सं:कृत, कश्यप, अत्रि कौशल्य, कौशिक पूरण, उपमन्यु, वत्स, वशिष्ठ आदि हैं। प्रवरों में आंगिरस, कश्यप, वशिष्ठ, वत्स, गार्गायन, आप्नवान, च्यवन, शंडिल्य, गौतम, गर्ग आदि है। वंशों के नामों में व्यास, आजारज, ठाकुर, चौबे, दुबे ज्योतिषी, सहरिया, तिवारी, दीक्षित, मिश्र, पाठक, पुरोहित आदि हैं।
गुजराती भार्गव में कुछ लोग अपने नाम के अंत में भार्गव लिखते हैं। कुछ मुंशी, जोआकर, रावल, देसाई, जोशी, व्यास, अजारज, पाठक, ठाकुर, हीडिया, ठाकोर, चोकसी, थानकी, वीण, पटेल, सगोत, याज्ञिक, दीक्षित, शुक्ल, आसलोट आदि। सुप्रसिद्ध श्री के.एम. मुंशी इन्हीं में से एक हैं। इनकी एक मासिक पत्रिका `भृगु-तेज´ भी निकलती थी। दक्षिण में `भार्गवन´- (बंगलौर में `भार्गवन´ रहते हैं, वह भी भृगुवंशी है। नम्बूदरीपाद जाति (केरल में) भी कदाचित भृगुवंशी है।
वैदिक और संस्कृत साहित्य से स्पष्ट प्रकट होता है, कि प्राचीन काल में समस्त भारतवर्ष के ब्राह्मण एक ही जाति में सिम्मलित थे, और अपने गोत्रों (अति प्राचीनकाल में भार्गव आंगिरस आदि सात मूल गोत्र और पश्चात् काल में जामदगन्य शौनक आदि 18 गढ़ आर्षप्रवरो और सपिडों को छोड़कर अन्य सब के साथ विवाह कर लेते थे। ईसा के 11वीं शताब्दी तक के जो शिलालेख और ताम्र पत्र है उनमें ब्राह्मणों का वर्णन केवल उनके गोत्रों, प्रवरों तथा चरणों (वैदिक शाखाओं) द्वारा ही हुआ है। 12वीं शताब्दी के लेखों में ब्राह्मणों के अवांतर भेदों का वर्णन आरम्भ हो जाता है। इनमें से प्राचीन ब्रह्म-ऋषि देश के अर्थात् प्राचीन कौरव, उत्तर पांचाल, मत्स्य और शोरसेनक जनपदों के ब्राह्मण गौड़ कहलाए। तीसरी, चौथी शताब्दी ईण् में कुरुक्षेत्र के आस-पास के देशों में गुड-वंशी अर्थात् गौड़-गोत्री राजपूतों का राज्य था। कुरुक्षेत्र को अपना केन्द्र मानने वाले प्रान्त के ब्राह्मण `गौड़´ और उनके नाम से समस्त उत्तर-भारत के ब्राह्मण `पंचगौड़´ कहलाए।
पुराणों में से ऐतिहासिक विषय के संग्रह कर्ता और भारतवर्ष की एतिहासिक कथाओं के संशोधक मिपारजिस्टर वंशावली शुद्ध नहीं है, संथतवार व बताकर पीढ़ियों वार रखी गई है, मनु के काल से आरम्भ होकर महाभारत युद्ध के पश्चात् समाप्त होती है, उसके मतानुसार निम्नलिखित विख्यात पुरुष उनके आगे लिखी पीढ़ियों में भृगु वंश में जन्मे थे।
(1) च्यवन दूसरी पीढ़ी में (2) उशनस (शुक्र) पांचवी पीढ़ी में (3) शंड, मर्क और अप्तवान छठी पीढ़ी में (4) उर्व तीसवीं पीढ़ी में (5) ऋचीक इकत्तीसवी पीढ़ी में (6) जमदग्नि और अजगर्ति बत्तीसवीं पीढ़ी में (7) राम और शुन: शेफ चौतीसवीं पीढ़ी में (8) अग्नि और बीतहव्य चालीसवीं पीढ़ी में (9) वहयश्व बासठवीं पीढ़ी में (10) दिथोदास तिरेसठवीं पीढ़ी में (11) मित्रयुव और परूच्छेपिदेवोदास चौंसठवीं पीढ़ी में (12) मैत्रयुव, प्रवर्दन, देवोदास और प्रचेल्स पैंसठवीं पीढ़ी में (13) अनीर्ति पालच्छेपि और वाल्मीकि छासठवीं पीढ़ी में (14) सुमित्र वाहयश्व सड़सठवीं पीढ़ी में (15) देवापि शौनक इकहत्तरवीं पीढ़ी में (16) इन्द्रोत देवापि शौनक बहत्तरवीं पीढ़ी में (17) वैशम्पायन चौरनवीं पीढ़ी में
च्यवन वंशी चड़ भार्गव महाराज जनमेजय पाडव के समकालीन थे। (16 शताब्दी ढूसर भार्गव)
स्कन्द पुराण ने भौगोलिक आधार पर ब्राह्मणों की 10 जातियां बताई हैं, जिनमें 5 विन्ध्य पर्वत के उत्तर की हैं, और 5 दक्षिण की 1 उत्तर भारत की 5 जातियां सारस्वत, गौड़, कान्यकुब्ज, मैथिल और उत्कल है। कुरु अथवा गुड़ प्रदेश आर्य सभ्यता का केन्द्र माना जाता था। अत: उसके नाम पर ये सभी ब्राह्मण सामान्य रूप से पंच गौड़ कहलाये दक्षिण के प्रदेशों के ब्राह्मण सामान्य रूप से पंच द्रविड़ कहलाये। इसी प्रकार भार्गव गोत्री गौड़ ब्राह्मणों का एक समूह कुंडिया कहलाता है तो दूसरा धूसर, ढसिया अथवा ढोसीवाला कहलाता है। आदि गौड़ ब्राह्मणोत्पत्ति में उल्लिखित धूसर, ढूसिया अथवा ढोसीवाला ही आधुनिक ढूसर भार्गव हैं। ढूसर भार्गवों का एक पृथक समुदाय के रूप में सर्वप्रथम 16 श. में मुगल सम्राट अकबर के समय में मिलता है। ये गौड़ ब्राह्मणों से पृथक थे। 16 श.से पहले भी ढूसर भार्गवों का उल्लेख मिलने की विपुल सम्भावना है। हरियाणा के नारनौल ग्राम के पास स्थित ढोसी नामक ग्राम के पास भार्गवों के आदि पूर्वज महिर्ष च्यवन का आश्रम था। इसी ढोसी के निवासी भार्गव ढूसर कहलाये। इसका पुष्ट प्रमाण 18 शण् के उत्तरार्द्ध में रचित `गुरू भक्ति प्रकाश´ नामक ग्रन्थ से मिलता है।
भौगोलिक क्षेत्र की दृष्टि से बधुसरा नदी के किनारे रहने के कारण ही च्यवन के वंशज वधूसर कहलाये इसी वधूसर शब्द का विलुप्त होकर धूसर शब्द बना। शनै:-शनै: धूसर शब्द के `ध´ के स्थान में `ढ´ आ जाने ढूसर शब्द इसी प्रकार बन गया जिस प्रकार धृष्ट शब्द से ढीट बन गया। ढोसी ग्राम का नाम भी वधूसरी का ही अपभ्रंश है। च्यवन और उनके वंशज वधूसरा नदी के तट पर रहते थे, तो सभी भृगुवंशी ब्राह्मण कहलाने चाहिए। उत्तर मध्यकाल तक भी वधूसरा नदी के आस-पास के ही प्रदेश में बसे रहे उनकी संज्ञा वधूसर अथवा धूसर हो गयी।
ढूसर भार्गव एक पृथक जाति के रूप में संगठित हो गये तब कम संख्या होने के कारण गोत्र प्रवर के नियमों का पालन करना कठिन हो गया।
16वीं शताब्दी में एक नाम (भार्गव) हेमू का आता है। महाराज हेमचन्द्र विक्रमादित्य वह विद्युत की भांति चमके और देदीप्यमान हुए। हेमू ढूसर भार्गव वंश के गोलिश गोत्र में उत्पन्न राय जयपाल के पौत्र और पूरनमाल के पुत्र थे। हेमू 16वीं शताब्दी का सबसे अधिक विलक्षण सेनानायक था।
शुक्ल पक्ष में विजयदशमी सन् 1501, विक्रमी संवत् 1558, को मेवात में राजगढ़ के पास माछेरी कस्बे के सम्पन्न ढूसर (भार्गव) ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आपका गोत्र गोलिश व कुलदेवी शकरा थी। आपके पिता संत पूरनदास एवं रेवाड़ी के संत नवलदास (ढूसर) राधाबल्लभ सम्प्रदाय (वृंदावन) के प्रवर्तक हित हरिवंशराय के प्रमुख शिष्यों में से थे।
हेमू का परिवार माछेरी से कुतुबपुर, रेवाड़ी में आकर बसा। आज भी आपकी हवेली जीर्ण-शीर्ण अवस्था में कुतुबपुर में स्थित है। उस समय रेवाड़ी एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था जो दिल्ली से ईरान तथा ईराक के रास्ते में पड़ता था।
सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य का राज्याभिषेक 7 अक्टूबर 1556 को दिल्ली के पुराने किले में हुआ था आपने मिर्जा तार्दीबेग के नेतृत्व में सिम्मलित हुयी विदेशी मुगल सेना को हराकर दिल्ली पर अधिकार जमाया था। वास्तव में पृथ्वीराज चौहान के जीवन काल के प्राय: 300 वर्षों बाद आप भारत के एकमात्र हिन्दू सम्राट थे जिसे इतिहास का भूला हुआ एक पृष्ठ कहा जाता है।
इतिहास प्रसिद्ध शेरशाह सूरी की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र इस्लाम खाँ ने राजगद्दी संभाली। उन्होंने हेमू की प्रशासकीय क्षमताओं का भरपूर उपयोग किया।
हेमू ने सम्राट हेमचन्द्र के रूप में भारतीय राजनीति में नया सूत्रपात किया-
उसने अपने भाई जुझार राय को अजमेर का सूबेदार गवर्नर बनाया एवं अपने भान्जे रमैया (रामचन्द्र राय) और भतीजे महीपाल राय को सेना में शामिल कर लिया। हेमू ने किसी भी अफगान अधिकारी को उसके पद से नहीं हटाया इससे भी सैनिकों में उसके प्रति विश्वास बढ़ा। हेमू ने अपने अल्प शासन काल में जिस जातिगत सौहार्द और धार्मिक सहिष्णुता का सूत्रपात किया, वह उसकी अपूर्व दूर-दृष्टि का परिचायक है।
अकबर की आयु उस समय केवल 13 वर्ष थी और बैराम खाँ उसका संरक्षक और प्रमुख सलाहकार था। तर्दी बेग़ के नेतृत्व में मुग़ल सेना की दिल्ली में हार और हेमू की विजय से बैराम खाँ इतना अधिक आहत और विचलित था कि उसने अकबर की सहमति के बग़ैर तर्दी बेग़ को फाँसी दे दी।
5 नवम्बर 1556 को पानीपत में सम्राट हेमचन्द्र व अकबर की सेना में भयंकर युद्ध हुआ। एक तीर सम्राट हेमचन्द्र की आँख को छेदता हुआ सिर तक चला गया। हेमचन्द्र ने हिम्मत न हारते हुए तीर को बाहर निकाला परन्तु इस प्रयास में पूरी की पूरी आँख तीर के साथ बाहर आ गई। आपने अपने रूमाल को आँख पर लगाकर कुछ देर लड़ाई का संचालन किया, परन्तु शीघ्र ही बेहोश होकर अपने “हवाई´´ नामक हाथी के हौदे में गिर पड़े।
आपका महावत आपको युद्ध के मैदान से बाहर निकाल रहा था कि मुगल सेनापति अली कुली खान “हवाई´´ हाथी को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा और बेहोश हेमू को गिरफ्तार करने में कामयाब हो गया। इस प्रकार दुर्भाग्यवश सम्राट हेमचन्द्र एक जीता हुआ युद्ध हार गये और भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र ढूसर (भार्गव) वंश का शासन 29 दिन के बाद समाप्त हो गया।
बैराम खाँ के लिए यह घटना एकदम अप्रत्याशित थी। बैराम खाँ ने अकबर से प्रार्थना की कि हेमू का वध करके वह `गाज़ी´ की पदवी का हक़दार बने। आनन-फानन में अचेत हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया। जिससे हेमू के समर्थकों की हिम्मत या भविष्य के विद्रोह की संभावना को पूरी तरह कुचल दिया जाय।
दिल्ली पर अधिकार हो जाने के बाद बैराम खाँ ने हेमू के सभी वंशधरों का क़त्लेआम करने का निश्चय किया। हेमू के समर्थक अफ़ग़ान अमीर और सामन्त या तो मारे गए या फिर दूर-दराज़ के ठिकानों की तरफ भाग गए। बैराम खाँ के निर्देश पर उसके सिपहसालार मौलाना पीर मोहम्मद खाँ ने हेमू के पिता को बंदी बना लिया और तलवार के वार से उनके वृद्ध शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। और उसने हेमू के समस्त वशधरों यानी सम्पूर्ण ढूसर भार्गव कुल को नष्ट करने का निश्चय किया। अलवर, रिवाड़ी नारनौल, आनौड़ आदि क्षेत्रों में बसे हुए ढूसर कहलाए जाने वाले भार्गव जनों को चुन-चुन कर बंदी बनाया। साथ ही हेमू के अत्यन्त विश्वास पात्र अफ़गान अधिकारियों और सेवकों को भी नहीं बक्शा। अपनी फ़तह के जश्न में उसने सभी बंदी ढूसर भार्गवों और सैनिकों के कटे हुए सिरों से एक विशाल मीनार बनवाई। (इस मीनार की मुग़ल पेन्टिग राष्ट्रीय संग्रहालय में मौजूद है।)
अकबर ने एक फ़रमान के ज़रिये जब अपना रोष प्रकट किया तो बैराम खाँ ने अकबर के खिलाफ़ बगावत कर दी। अकबर ने उसे हराकर बंदी बना लिया और उसे क्षमादान दे दिया। बैराम खाँ ने अपने पापों का प्रायश्चित करने हज के लिए मक्का भेजे जाने की दरख्वास्त पेश की जिसे अकबर ने मंजूर कर लिया। लेकिन रास्ते में मुबारक खाँ लोहानी नामक अफ़गान ने तलवार से प्रहार कर उसे मार डाला।
अकबर के गुप्तचरों ने सम्राट को सूचना दी कि भार्गव सम्प्रदाय की औरतों और छोटे बच्चों को छोड़कर, पूरी तरह सफ़ाया कर दिया गया है, केवल एक ढूसर भार्गव शेष रह गया है उनका नाम है संत नवलदास! अकबर के आदेश के अनुसार संत नवलदास को पकड़कर दरबार में हाज़िर किया गया और उन्हें कारागार में डाल दिया गया।
संत नवलदास से भेंट के बाद अकबर का हृदय परिवर्तन हुआ। उसने ढूसर भार्गवों पर बरसों से हो रहे अत्याचारों को तुरन्त बंद करने का आदेश दिया और हेमचन्द्र के मृत भतीजे महीपाल के चार वर्षीय पुत्र नथमल को हेमचन्द्र का एकमात्र वंशज समझकर अनौड़ के विशाल क्षेत्र की जागीर सौंपी और राजकोष से 11 हजार मुद्राएं वार्षिक रूप से देने का शाही फ़रमान जारी किया, जो सन्-1857 तक मान्य रहा।
प्राप्त ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार यह निष्कर्ष निकालना पूर्णत: युक्तसंगत है कि भारतीय राजनीति में हिन्दू मुस्लिम एकता अथवा सर्वधर्म सम्भाव के प्रेणता अकबर नहीं, (जैसा कि अनेक विदेशी एवं भारतीय इतिहासकारों का मत है) बल्कि हेमचन्द्र थे, जिनकी सेना में 90 प्रतिशत से अधिक अफ़गान मुसलमान थे। दिलचस्प तथ्य यह है कि हेमचन्द्र को सम्राटत्व उनके सहयोगी अफ़गान सेनाधिकारियों एवं प्रशासकों ने एकमत से दिया था। “विक्रमादित्य´´ की उपाधि भी उन्हें प्रदान की गई थी, उन्होंने स्वयं धारण नहीं की।
गौरतलब यह भी है कि बिहार के अनेक क्षेत्रों में हेमचन्द्र से सम्बन्धित लोकगीत आज तक प्रचलन में हैं। यह तथ्य इस बात को रेखांकित करता है कि हेमचन्द्र सामान्य जनों के बीच अत्यन्त लोकप्रिय थे और जिस “जन कल्याण राज्य´´ (Social Welfare State) की आज चर्चा की जाती है, मध्यकालीन भारत में उसके प्रणेता हेमचन्द्र विक्रमादित्य थे।
औरंगजेब के अन्याय से प्रताड़ित हिन्दुओं की रक्षा के लिए छत्रपति शिवाजी, गुरुगोविन्द सिंह और स्वामी चरणदास जैसे महान पुरुषों ने जन्म लिया। महात्मा चरणदास ने भाद्रपद शुक्ल तृतीया संवत्- 1760 तद्नुसार सन्- 1703 ई को जन्म लिया।
सन्त चरणदास का व्यक्तित्व इतना चमत्कारी था कि उस समय के अनेक शासक भी उनसे प्रभावित हो गये। सन्त चरणदास आध्यात्मिक ज्ञान और योग में ही निष्णात नहीं थे वरन् एक श्रेष्ठ कवि भी थे। उनकी फुटकर रचना `शब्द´ नाम से विख्यात हैं। इनकी आख्यानात्मक और वर्णनात्मक रचनाएं प्राय: श्री कृष्ण लीला से सम्बंध रखती हैं।
चरणदास जी बहुत बड़े योगी ही नहीं थे, उतने ही बड़े सुधारक भी थे। धर्म और समाज के क्षेत्रों में फैले हुए अन्धविश्वासों, आडम्बरों और संकीर्णताओं को दूर करने का उन्होंने सतत् प्रयत्न किया। ये एकेश्वरवादी थे। चरणदास जी ने समाज में ही नहीं धर्म के क्षेत्र में भी नारी को पुरुष के बराबर ला बिठाया। उनकी शिष्य मंडली में सबसे प्रमुख दो शिवयायें हैं, जिनके नाम सहजोबाई और दया बाई थे। सहजोबाई एक उच्चकोटि की हरि भक्त थीं और उन्हें 18वीं शताब्दी की मीराबाई कह सकते हैं। इनकी दूसरी शिष्या दयाबाई थीं। ये भी सहजोबाई के समान कवियित्री थीं और उन्होंने सन्- 1761 में दयाबोध नामक ग्रन्थ की रचना की और दूसरा ग्रन्थ `विनय-मालिका´ है। दयाबाई का 1773 ई.में निर्वाण हुआ। इस प्रकार 18वीं शताब्दी की इन विभूतियों ने हिन्दू समाज को सन्मार्ग दिखाने का अत्यन्त सराहनीय कार्य करके भृगुवंश को गौरव प्रदान किया।
भृगुवंश से शुरू हुआ भार्गवों का इतिहास जिसमें अनेक विभूतियों ने जन्म लिये, जिसके पूर्वजों ने हिन्दुस्तान की बाग डोर संभाली और जो इतना पुराना होते हुये भी इनकी संख्या कम होने की एक वजह क्या रही ये चिंतन् का विषय है। सम्पूर्ण भारत में लगभग 7000 भार्गव परिवार है।
व्यक्ति, राष्ट्र की इकाई और उसका चरित्र राष्ट्र चरित्र का परिचायक होता है। भार्गव वंश के मनीषियों के उच्च चरित्रों एवं उपलब्धियों ने भार्गव जाति को देश विदेशों में गौरवपूर्ण स्थान दिलाया है अत: यह आवश्यक हो जाता है कि उनके द्वारा राष्ट्र एवं समाज के प्रति की गई सेवाओं का लेखा जोखा लिपिबद्ध किया जावे यह इसलिए भी आवश्यकत था कि नवीन पीढ़ी इन गौरवपूर्ण गाथाओं से प्रेरणा प्राप्त कर अपने चरित्र निर्माण की एवं राष्ट्र के प्रति समर्पित होने की भावना को अपने जीवन में साकार करे। Know more – Bhargav Samaj Global
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भृगुवंश विश्व के प्राचीनतम वंशों में से एक है। प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ में भृगुओं का अनेक स्थलों पर पितर के रूप में स्मरण किया जाना ही उनकी प्राचीनता का ज्वलंत प्रमाण है। इस वंश का देवताओं के साथ सम्बन्ध रहा। भृगु पुत्री लक्ष्मी का विवाह त्रिदेवों में श्री विष्णु के साथ हुआ। इस प्रकार भृगु ऋषि विष्णुजी के श्वसुर थे। इन्द्र पुत्री जयन्ती का विवाह भृगुपुत्र शुक्राचार्य के साथ हुआ था। ये सम्बन्ध भृगु वंश की महत्ता को सिद्ध करते हैं।
गोत्र का क्या तात्पर्य है ? इसकी क्या आवश्यकता पड़ी ?
गण तथा प्रवर
भार्गव समाज में शिखा के सन्दर्भ में क्या विधान है ?
कुलदेवियाँ क्या हैं ? भार्गवों की कुल कितनी कुलदेवियाँ हैं ? उनका क्या महत्त्व है ?
#गोत्र_का_क्या_तात्पर्य_है_इसकी_क्या_आवश्यकता_पड़ी गोत्र का क्या तात्पर्य है ? इसकी क्या आवश्यकता पड़ी ? ‘गोत्र’ शब्द का वास्तविक अर्थ पशु बांधने का स्थान था। अति प्राचीन काल में जिनके पशु एक ही शाला में बाँधे जाते थे, वे सगोत्री कहलाते थे। साधारणतया ऐसे लोगों में एक ही पूर्वज की संतान सम्मिलित होने से ‘गोत्र’ शब्द का लौकिक अर्थ वंश हो गया। श्रौत सूत्रों के परिशिष्टों में कहा गया है – ‘यदपत्यं तद्गोत्रमित्युच्यते’ अर्थात् उन (ऋषियों) की संतानों को गोत्र कहते हैं। पाणिनी ने भी कहा है -‘अपत्यं पौत्रप्रभृतिगोत्रम्’ अर्थात् बेटे, पोते आदि संतान ही गोत्र है।
पहले सब एक ही स्थान पर रहते थे। कालान्तर में जब वंश के लोगों की संख्या बढ़ी तो लोगों का एक स्थान पर रहना असंभव हो गया तो उन लोगों ने पृथक हो कर अपने रहने के अलग-अलग स्थान बनाए अर्थात् गोत्रों की शाखाएँ हो गई। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि पहले कुल चार गोत्र थे – भृगु, अंगिरस, अथर्वण तथा वशिष्ठ। अथर्वण गोत्र के लोग फारस चले गए। अंगिरस गोत्र भृगु गोत्र में समाहित हो गया। पहले हम लोगों का मूल गोत्र भृगु था। ‘भृगोरपत्यम्’ अर्थात् ‘भृगु की संतान’ होने के कारण ‘भृगु’ गोत्र का स्थान ‘भार्गव’ गोत्र ने ले लिया। फलस्वरूप मूल गोत्र/वंश ‘भार्गव’ हो गया।
वंश विस्तार के कारण हमारे पूर्वज अलग-अलग स्थानों पर बस गए। उन महान पूर्वजों (ऋषिगण) के नाम पर अनेक शाखा-गोत्र बन गए, जिनका विवरण इस प्रकार है –
वत्स – भृगु वंशावली में पहला नाम ‘वत्स’ ऋषि का मिलता है जो धातृ ऋषि के पुत्र थे। इनका निवास स्थान पूर्वी भारत था। इनका लिखा एक ग्रन्थ मिलता है, जिसका नाम ‘वत्स स्मृति’ है।
वात्स्य – ये भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार थे। इनके नाम पर कई ज्योतिष ग्रन्थ उपलब्ध हैं। दुर्भाग्य से यह गोत्र ‘वत्स’ गोत्र में विलीन हो गया।
विद – इनका ‘बिद’ नाम भी मिलता है। ये भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार थे ये सामद्रष्टा आचार्य थे। पंचविश ब्राह्मण (13.11.10) तथा जैमिनी उ. ब्रा.3. 1 में इनका पूरा नाम ‘विदन्वत् भार्गव’ बतलाया गया है।
गालव – ये एक प्रसिद्ध ऋषि थे। इनके नाम से एक ग्रन्थ मिलता है, जिसका नाम ‘गालव स्मृति’ है। गोत्रकार के रूप में इनका नाम ‘संगालव’ है।
गांगेय – इनका वास्तविक नाम गार्ग्य या गाग्ययिण था। ये भृगुकुल के एक गोत्रकार थे। गंगा तट पर रहने के कारण ये गांगेय कहलाए। इनका रचा एक ग्रन्थ ‘गार्ग्य स्मृति’ है।
कोचहस्ति – ये भृगुकुल के गोत्रकार थे, जिनका वास्तविक नाम कोचहस्तिक था।
काश्यपि – काश्यपि भृगुवंशी ऋषि तथा गोत्रकार हैं। इनके रचे दो ग्रन्थ मिलते हैं – ‘काश्यपि स्मृति’ तथा ‘काश्यपि धर्मशास्त्र’
सिह्र – पुरानी Directories में लिखा है कि यह गोत्र नहीं पाया जाता है। सन् 1971 की जातीय जनगणना के समय (स्व.) नवीन चन्द्र भार्गव, दिल्ली को आगरा-मथुरा के गांवों के सिह्रलस गोत्रधारी कुछ परिवार मिले थे। उस समय इनकी गणना दस्सों में की गई थी। हमारी जाति में इस गोत्र के लोग भी हैं। यद्यपि ‘गोत्र प्रवरदर्पण’, ‘गोत्रप्रवर निर्णय’, ‘गोत्रप्रवरकारिका’, ‘गोत्रप्रवर भास्कर’, ‘गोत्र प्रवर मंजरी’,’गोत्र प्रवर विवेक’ आदि ग्रंथों में इस गोत्र का उल्लेख नहीं हुआ है।
गण तथा प्रवर – परशुराम के समय आठों गोत्र दो गणों में विभक्त हो गए – (क) जामदग्न्य गण (ख) अजामदग्न्य गण। वत्स, वात्स्य, विद, गालव, गांगेय और कोचहस्ति जामदग्न्य गण के अन्तर्गत आते हैं। शेष दो गोत्र काश्यपि तथा सिह्र अजामदग्न्य गण के अन्तर्गत आते हैं। काश्यपि गोत्र के अन्य नाम वैतहव्य या यास्क है। इसी प्रकार सिह्र गोत्र के गण का नाम आर्ष्टिषेण भी है। इन गोत्रों के लोगों ने अपने-अपने गोत्र के श्रेष्ठ पुरुषों के नाम पर पंच प्रवर तथा त्रिप्रवर की संख्या निर्धारित की, जिनका विवरण इस प्रकार है – सं. गोत्र प्रवर 1.
वत्स, वात्स्य, गालव, गांगेय, कोचहस्ति – भृगु,च्यवन, आप्नवान, उर्व, जमदग्नि
काश्यपि – भृगु, वैतहव्य, सावेतस
सिह्र – भृगु,च्यवन, आप्नवान,आर्ष्टिषेण, अनूप
विद – भृगु,च्यवन, आप्नवान, ऊर्व, बिद
भार्गव समाज में हमें इन बातों की जानकारी अवश्य होनी चाहिए –
वेद – भृगु,च्यवन, आप्नवान, उर्व, जमदग्नि
शाखा – माध्यन्दिन
उपवेद – धनुर्वेद
श्रौत सूत्र – कात्यायन
गृह्य सूत्र – पारस्कर
धर्म सूत्र – कात्यायन
कुलदेवता – वरुण
निकास स्थान – ढोसी
वंश – भार्गव
उपवंश – च्यवन
पाद – दाहिना
शिखा – मुण्डित
#भार्गव_समाज_में_शिखा_के_सन्दर्भ_में_क्या_विधान_है” शिखा द्विजत्व का चिह्न है। पांच प्रकार की गाँठ वाली शिखाओं का विधान है -एक जटी, द्वि-जटी, त्रि-जटी, पंच जटी तथा धूर्जटी। ‘धूर्जटी’ केवल साधु, सन्यासी, ऋषि, मुनि, महर्षि ही धारण करते थे। शेष लोगों के लिए चार प्रकार की चोटियों का विधान है, लेकिन भार्गवों के लिए सिर मुंडा हुआ रखने का विधान है। गौमिल्य गृह्य सूत्र में कहा गया है –
दक्षिणकपर्दा वासिष्ठाः आत्रेयास्त्रिकपर्दिनः ।
आङ्गिरसः पञ्चचूडामुण्डा भृगवः शिखिनोडन्ये।।
इससे स्पष्ट है कि भार्गव लोग सिर मुंडा हुआ रखें।
कुलदेवियाँ_क्या_हैं_भार्गवों_की_कुल_कितनी_कुलदेवियाँ_हैं_उनका_क्या_महत्त्व_है
कुलदेवियाँ क्या हैं ? भार्गवों की कुल कितनी कुलदेवियाँ हैं ? उनका क्या महत्त्व है ?
गोत्र, गण, प्रवर, वेद, उपवेद, श्रौतसूत्र, पाद, शिखा आदि का विधान हो जाने के बाद हमारे पूर्वजों ने सोचा कि इन सबके बाद भी हमारी पूजा-अर्चना अधूरी है, हमारा पूजन एकांगी है, क्योंकि हम केवल कुलदेवता की पूजा करते हैं। शक्ति स्वरूपा देवी की उपासना के बिना हम अधूरे हैं। तब हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों ने तप करके अपनी-अपनी शक्तियों को संचित किया और प्रत्येक ने उन्हें एक ‘कुलदेवी’ का रूप दिया। ये कुलदेवियाँ मंदिरों में देवी रूप में प्रतिष्ठित हुईं तथा घर में पूजा की पिटारी में कुलदेवता वरुण के साथ कुलदेवी (प्रतीकात्मक रूप में) रखी गई।
ये तीन रूप धारण करके आई,
जैसे ईंटा – ईंटा रौसा,
नागन- नागन फुसन,
नागन स्याहू।
कुलदेवियाँ भी विभिन्न गोत्रों में सामान्य रूप से उपस्थित हैं। वैसे प्रत्येक गोत्र और कुलदेवी को लेकर एक कुल बनता है। इस प्रकार हम लोगों के कुल 55 कुल हैं। हमें अपनी कुलदेवी की अवश्य पूजा करनी चाहिए। इससे हमें धन,विद्या एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । कुलदेवियों का विवरण इस प्रकार है –
आँचल – अंचल,अटला ,अचला आदि कई नाम हैं । ये देवी पार्वती की अपररूप हैं ।
आर्चट – इनका अरचट नाम भी है । ये हमारे पूर्वज उशनस शुक्राचार्य की पुत्री ‘अरजा ‘ है ।
अपरा – ये पुराणोक्त अध्यात्म की देवी ‘विद्या ‘का ही रूप है ।
अम्बा – ये पार्वती देवी ही है ।
ईंट – ये लक्ष्मी का एक रूप है ।
ईंट रौसा -दुर्गा के साथ लक्ष्मी है ।
ऊखल -इस नाम की देवी का विवरण नहीं मिलता है ।
कनकस/कनक्स – ‘कनक’ अर्थात लक्ष्मी का ही दूसरा नाम है ।
ककरा -‘कर्कोट’ नामक देवी दुर्गा का एक रूप है ।
कुलाहल – यह दुर्गा देवी का एक नाम है ।
कूकस/खूखस -इस नाम की देवी का पता नहीं चलता ।
कोढ़ा – इनके बारे में विवरण अज्ञात है।
चाकमुंडेरी / जाखमुंडेरी – यक्षिणी का एक स्वरुप
चामुंडा/चावंडा – यह दुर्गा देवी का रूप है।
जाखन/ जाखिनी – यह यक्षिणी का अपभ्रंश नाम है। यक्षिणी देवी का मंदिर वर्तमान में कांगड़ा में है। हस्तिनापुर तथा नारनौल के मंदिर विनष्ट हो गए। एक मंदिर लगभग 80 वर्ष पूर्व जयपुर में था।
जीवन -ये महालक्ष्मी है।
तांबा/ तामा – यह भी दुर्गा का एक रूप है।
नागन/ नायन/ नागिन/ नागेश्वरी – शंकर जी का एक अवतार नागेश्वर था। उनकी पत्नी होने के कारण नागेश्वरी कहलाई। यह भी पार्वती का एक रुप है।
नागन फूसन – पार्वती जी के प्रतीक के साथ फूस रख कर पूजन करते हैं।
नागन स्याह / नागर साहू – पार्वती जी के साथ साहू का पूजन होता है।
नीमा – सरस्वती देवी का एक नाम है।
बबूली / बम्बूली – दुर्गा का एक नाम।
बावनी / बामनी / बामन / ब्रह्माणी – यह सब ब्रह्मा की स्त्री ब्रह्माणी के नाम है।
भैंसाचढ़ी – यह दुर्गा जी का एक नाम है।
मंगोठी – मंगला देवी, दुर्गा जी का अपररूप।
माहुल – यह पार्वती देवी का प्रतीक है
रौसा – यह दुर्गा का रोषयुक्त रूप है
शक्रा / शकरा / सकराय – यह शाकंभरी देवी का एक रूप है। इन्होंने अपने भक्तों को कंदमूल तथा सब्जियां खाने को दी अतएव इनका नाम शाकंभरी पड़ा।
शीतला – मथुरा में शीतला देवी का मंदिर है इनका वाहन गदहा है।
सनमत – यह ललिता देवी का एक नाम है।
सुरजन – यह सूर्य की पत्नी छाया का नामान्तर है।
सोहनशुक्ला / सोंडल / सोना – यह सब लक्ष्मी के नाम है।
ध्यातव्य है कि स्थानीय प्रभाव, उर्दू तथा फारसी लिपि के कारण अधिकांश नाम भ्रष्ट हो गए हैं। इनके यथासंभव वास्तविक रूप को ढूंढने का मैंने प्रयास किया है। आशा है भावी पीढ़ी इन के शुद्ध रूप को खोजने का प्रयास करेगी। इति
‘कुलदेवी ज्ञान चर्चा संगम’ से साभार, लेखक – डॉ. मनहर गोपाल भार्गव