ब्राह्मणों की श्रेणियां
ब्राह्मणों में कई जातियां है। इससे मूल कार्य व स्थान का पता चलता है
आदि गौड़ (सृष्टि के प्रारंभ से गौड़ या आदि काल से गौड़ ) या गौड़ ब्राह्मण “पृथ्वी के प्रथम शासक ब्राह्मण” उत्तर भारतीय ब्राह्मणों की पांच गौड़ब्राह्मणों की मुख्य शाखा का प्रमुख भाग है, गौड़ ब्राह्मण, आदि गौड़ तथा श्री आदि गौड़ एक ही ब्राह्मण वंश हैl
(ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्डय प्रथम प्रकरण के अनुसार) राजा जन्मेजय ( अभिमन्यु के पुत्र ,राजा परीक्षित थे। राजा परीक्षित के बाद उन के लड़के जनमेजय राजा बने ) ने सर्पदमन यज्ञ करने हेतु महामुनि बटटेश्वर / बटुकेश्वर / तुर को आमंत्रित किया मुनि अपने 1444 शिष्यों सहित ‘सर्पदमन’ वर्त्तमान ‘सफीदों’ कुरुक्षेत्र नमक स्थान पर (कहीं कहीं यह स्ताहन हिरन ग्राम उत्तरप्रदेश भी बताया जाता है) पधारें तथा यज्ञ अरंभ किया, यह यज्ञ इतना भयंकर था कि विश्व के सारे सर्पों का महाविनाश होने लगा। परन्तु वास्तविक स्थान ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्डाय के अनुसरा सर्पदमन ग्राम ही है
{}महाभारत में जनमेजय के छः और भाई बताये गये हैं। यह भाई हैं कक्षसेन, उग्रसेन, चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण तथा नख्यसेन।[3] महाकाव्य के आरम्भ के पर्वों में जनमेजय की तक्षशिला तथा सर्पराज तक्षक के ऊपर विजय के प्रसंग हैं। सम्राट जनमेजय अपने पिता परीक्षित की मृत्यु के पश्चात् हस्तिनापुर की राजगद्दी पर विराजमान हुये। पौराणिक कथा के अनुसार परीक्षित पाण्डु के एकमात्र वंशज थे। उनको श्रंगी ऋषि ने शाप दिया था कि वह सर्पदंश से मृत्यु को प्राप्त होंगे। ऐसा ही हुआ और सर्पराज तक्षक के ही कारण यह सम्भव हुआ। जनमेजय इस प्रकरण से बहुत आहत हुये। उन्होंने सारे सर्पवंश का समूल नाश करने का निश्चय किया। इसी उद्देश्य से उन्होंने सर्प सत्र या सर्प यज्ञ के आयोजन का निश्चय किया। यह यज्ञ इतना भयंकर था कि विश्व के सारे सर्पों का महाविनाश होने लगा। उस समय एक बाल ऋषि अस्तिक उस यज्ञ परिसर में आये। उनकी माता भगवान शिव की पुत्री मानसा एक नाग थीं तथा उनके पिता एक ब्राह्मण थे।{}
यज्ञ की समाप्ति होने पर राजा जन्मेजय अपने गुरु बटेश्वर मुनि को शिष्यों समेत महा पूजा करके दक्षिणा देने को तैयार हुआ। बटेश्वर मुनि अयाचक ब्राह्मण थे वे राज प्रतिग्रह भी नहीं करते थे, इसलिए उन्होंने दक्षिणा लेना स्वीकार नहीं किया। तब महाराजा जनमेजय ने कहा की हे ब्राह्मण ! बिना दक्षिणा दिए यज्ञ पूरा नहीं होता। इस प्रकार राजा के बहुत कहने पर मुनि और शिष्यों ने केवल एक-एक पान का बीड़ा लेना स्वीकार किया, तब महाराजा ने बड़ी चतुरता से 1444 संकल्प पत्रिका लिखवाई अर्थात हर एक चिट्ठी मैं एक-एक ग्राम दान का संकल्प था सो एक-एक चिट्टी एक-एक पान के बीड़ा मैं रखवाकर चलते समय मुनि और शिष्यों को बाँट दी। तब मुनि और शिष्यों ने महाराजा जनमेजय को आशीर्वाद दिया। जब पान खोलकर देखे गए तब यह गुप्त दान का भेद खुला। अंत मैं यही हुआ की जो ग्राम जिस – जिस को मिला वह उसी में बसा और जिस ग्राम या नगर मैं जो बसा उसी पर उसका शाशन हुआ। जिन को कोई अल्ल व अवंटक भी कहते हैं। इन बटेश्वर मुनि के 1444 शिष्यों के गोत्र – अत्रि , गर्ग , गौतम , जैमिनी , धनंजय , पराशर , भारद्वाज , भार्गव , यमदग्नि , वत्स , वशिष्ठ , शांडिल्य , शौनक और सांकृत थे।
ब्राह्मणों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न उपनामों से जाना जाता है, जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में दीक्षित, शुक्ल, द्विवेदी त्रिवेदी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में जोशी, जोशी उप्रेती त्रिवेदी, दिल्ली, हरियाणा व राजस्थान के कुछ भागों में जोशी, त्रिवेदी भार्गव, डाकोतखाण्डल विप्र, ऋषीश्वर, वशिष्ठ, कौशिक, भारद्वाज, सनाढ्य ब्राह्मण, राय ब्राह्मण, त्यागी , अवध (मध्य उत्तर प्रदेश) तथा मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड से निकले जिझौतिया ब्राह्मण,रम पाल, राजस्थान, मध्यप्रदेश व अन्य राज्यों में बैरागी वैष्णव ब्राह्मण, बाजपेयी, बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश ,बंगाल व नेपाल में भूमिहार, जम्मू कश्मीर, पंजाब व हरियाणा के कुछ भागों में महियाल, मध्य प्रदेश व राजस्थान में गालव, गुजरात में श्रीखण्ड,भातखण्डे अनाविल, महाराष्ट्र के महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण, मुख्य रूप से देशस्थ, कोंकणस्थ , दैवदन्या, देवरुखे और करहाड़े है. ब्राह्मण में चितपावन एवं कार्वे, कर्नाटक में निषाद अयंगर एवं हेगडे, केरल में नम्बूदरीपाद, तमिलनाडु में अयंगर एवं अय्यर, आन्ध्र प्रदेश में नियोगी एवं राव, ओड़िशा में दास एवं मिश्र आदि तथा राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार में शाकद्वीपीय (मग)कहीं उत्तर प्रदेश में जोशी जाति भी पायी जाती है। आदि।
ब्राह्मणों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न प्रसिद्द ऋषियों के वंशजो उपनामों से जाना जाता है,
- सामवेदी: ये सामवेद गायन करने वाले लोग थे।
- अग्निहोत्री: अग्नि में आहुति देने वाला।
- त्रिवेदी: वे लोग जिन्हें तीन वेदों का था ज्ञान वे त्रिवेदी है
- चतुर्वेदी: जिन्हें चारों वेदों का ज्ञान था। वेलोग चतुर्वेदी हुए।
- एक वेद को पढ़ने पढ़ाने वाले को पाठक कहा गया।
- वेदी: जिन्हें वेदी बनाने का ज्ञान था वे वेदी हुए।
- द्विवेदी:जिन्हें दो वेदों का ही ज्ञान था वे लोग द्विवेदी कहलाएं
- शुक्ल यजुर्वेद को पढ़ने वाले शुक्ल या शुक्ला कहलाए।
- चारो वेदों, पुराणों और उपनिषदों के ज्ञाता को पंडित कहा गया, जो आगे चलकर पाण्डेय, पांडे, पंडिया, पाध्याय हो गए। ये पाध्याय कालांतर में उपाध्याय हुआ।
- *शास्त्र धारण करने वाले या शास्त्रार्थ करने वाले शास्त्री की उपाधि से विभूषित हुए।
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