Jivitputrika Vrat: Thanksgiving for the gift of life
व्रत का अर्थ और महत्व
“जीवित्पुत्रिका व्रत” एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपवास दिवस है, जिसे आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। विशेष रूप से स्त्री समाज में इसका विशेष महत्व होता है। जीवित्पुत्रिका व्रत में, माताएँ अपनी सन्तानों की सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिए पूरे दिन और रात तक निर्जला उपवास करती हैं।
यह व्रत विशेष रूप से भारत के बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश राज्यों में महत्वपूर्ण रूप से मनाया जाता है। नेपाल में इसे “जितिया उपवास” के नाम से जाना जाता है और यह वहां भी प्रसिद्ध है। इस व्रत के माध्यम से माताएं अपने सन्तानों की लंबी और स्वस्थ जीवन की कामना करती हैं और उनके उत्तरदायित्वों के प्रति अपने समर्पण का प्रतीक दिखाती हैं।
यह व्रत समाज में मातृपुत्र संबंधों के महत्व को प्रमोट करने के साथ-साथ परिवार में एकता, सद्गुण और समर्पण की भावना को भी बढ़ावा देता है। इसके अलावा, यह व्रत हमें यह सिखाता है कि परिवार के सदस्यों के बीच समझदारी, सहयोग और प्रेम का महत्व क्या होता है।
“जीवितपुत्रिका व्रत की कहानी
पौराणिक कथाओं के अनुसार, जिमुतवाहन नामक एक दयालु और बुद्धिमान राजा था। वह राजा विभिन्न सांसारिक सुखों से खुश नहीं थे, और उन्होंने अपने भाइयों को राज्य की जिम्मेदारियों में बाँट दी, और खुद जंगल में वनवास जाने चले गए।
कुछ समय बाद, जंगल में घूमते समय, राजा को एक बूढ़ी औरत मिली, जो विलाप कर रही थी। जब उसने उससे पूछा, तो उसे पता चला कि यह औरत नागवंशी (सांपों के परिवार) से संबंधित है और उसका केवल एक ही पुत्र था। लेकिन उसने जो शपथ ली थी, उसके अनुसार प्रतिदिन एक सांप को उसी स्थान पर पेश करना था, और आज उसके पुत्र की बारी थी।
महिला की पीड़ा को देखकर, जिमुतवाहन ने उससे वादा किया कि वह उसके पुत्र को सांप से बचा लेगें। तब वह खुद को लाल रंग के कपड़े में बाँधकर चट्टानों पर लेट गए और खुद को सांप के लिए भोजन के रूप में प्रस्तुत किया।
जब सांप आया, तो वह जिमुतवाहन को पकड़ लिया। खाने के दौरान, सांप ने देखा कि उसकी आंखों में कोई आंसू या मौत का भय नहीं है। सांप आश्चर्यचकित हुआ और उसकी असली पहचान पूछी।
सम्पूर्ण घटना सुनकर, सांप राजा की उदारता और बहादुरी से प्रभावित हुआ और उसने उसे छोड़ दिया। उसने वादा किया कि वह अपने पुत्र की रक्षा करेगा और सांपों के प्रति और बलिदान और त्याग की महत्वपूर्णता को समझेगा। इस प्रकार, राजा की उदारता और बहादुरी के कारण, सांपों के जीवन की रक्षा की गई। इस परंपरा के कारण, यह दिन ‘जीवितपुत्रिका’ व्रत के रूप में मनाया जाता है, जिसमें मां अपने पुत्र की लंबी आयु और शुभ भविष्य की कामना के साथ उपवास करती हैं।
रीति-रिवाज
जीवितपुत्रिका व्रत को बहुत उत्साह और खुशी के साथ मनाया जाता है। माताएं इस व्रत का पालन करके अपने पुत्रों की लंबी आयु और सुख-शांति की कामना करती हैं।
जो महिलाएं इस व्रत का पालन करती हैं, उन्हें सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करना चाहिए और पवित्र भोजन करना चाहिए। उन्हें दिनभर भोजन और पेयजल से दूर रहना चाहिए।
अगले दिन, जब अष्टमी तिथि समाप्त होती है, तो महिलाएं उपवास को तोड़ सकती हैं।
यह थी जीवितपुत्रिका व्रत की कहानी और इसके परंपरागत रीति-रिवाज का विवरण।
जीवितपुत्रिका का पूजन मंत्र
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।
सदा बसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि।।
पूजा सामग्री
जीवितपुत्रिका व्रत के अवसर पर भगवान जिमूत वाहन, गाय के गोबर का पूजा में महत्वपूर्ण योगदान होता है। इस व्रत में पूजा के लिए खड़े अक्षत (चावल), पेड़ा, दूर्वा की माला, पान, लौंग, इलायची, पूजा की सुपारी, श्रृंगार के उपकरण, सिंदूर, पुष्प, गांठ बांधने का धागा, कुशा से बनी जीमूत वाहन की मूर्ति, धूप, दीप, मिठाई, फल, बांस के पत्ते, सरसों का तेल, खली, और गाय के गोबर की महत्वपूर्णता होती है।
पूजन विधि
जीवितपुत्रिका व्रत के दिन ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनें। इसके बाद, व्रत रखने वाली महिलाएं प्रदोष काल में गाय के गोबर से पूजा स्थल की लिपिकरण करें। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस व्रत में एक छोटा सा तालाब बनाकर पूजा की जाती है, जिससे जीमूतवाहन के वाहन स्वामी धर्मात्मा की पूजा की जाती है।
पूजा की विधि:
शालीवाहन राजा के पुत्र धर्मात्मा जीमूतवाहन की पूजा करें।
जीमूतवाहन की कुश से बनी मूर्ति को जल या मिट्टी के पात्र में स्थापित करें और पीले और लाल रुई से उन्हें सजाएं।
धूप, दीप, अक्षत (चावल), फूल, और माला से उनका पूजन करें।
पूजा के दौरान जीवितपुत्रिका की व्रत कथा को अवश्य पढ़ें और सुनें।
इसके बाद, संतान की दीर्घायु और सफलता की प्रार्थना करें।
पूजा का पारण करने से पहले, सूर्यदेव को अर्घ्य अर्पित करें।
व्रत का पारण करते समय आप दीर्घायु और खुशहाल जीवन की कामना कर सकते हैं।
पूजन सामग्री:
पूजा के लिए आवश्यक सामग्री में खड़े अक्षत (चावल), पेड़ा, दूर्वा की माला, पान, लौंग, इलायची, पूजा की सुपारी, श्रृंगार के उपकरण, सिंदूर, पुष्प, गांठ बांधने का धागा, कुशा से बनी जीमूतवाहन की मूर्ति, धूप, दीप, मिठाई, फल, बांस के पत्ते, सरसों का तेल, खली, और गाय के गोबर की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।