Shashank, the Hindu Gaur of Bengal सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में पहला महान् राजा शशांक, बंगाल का हिंदू गौड़ था जिसने गौड़ राज्य की स्थापना की।
गौड़ राज्य ७वीं शताब्दी के बंगाल का एक राज्य था जिसका संस्थापक शशांक नामक राजा था।
शशांक, बंगाल का हिंदू गौड़ था जिसने सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में बंगाल पर शासन किया। वह बंगाल का पहला महान् राजा था। उसने गौड़ राज्य की स्थापना की।
६२५ ई में भारतीय उपमहाद्वीप
मालवा के राजा देवगुप्त से दुरभिसंधि करके हर्षवर्धन की वहन राज्यश्री के पति कन्नौज के मौखरी राजा ग्रहवर्मन को मारा। तदनंतर राज्यवर्धन को धोखे से मारकर अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयत्न किया। पर जब राज्यवर्धन के कनिष्ठ भ्राता ने उसका पीछा किया तो वह बंगाल चला गया।
अंतिम गुप्त सम्राटों की दुर्बलता के कारण जो स्वतंत्र राज्य हुए उनमें गौड़ या उत्तरी बंगाल भी था। जब महासेन गुप्त सम्राट् हुआ तो उसकी दुर्बलता से लाभ उठाकर शशांक गौड़ ने गौड़ देश में स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। उस समय शशांक महासेन गुप्त का सेनापिति था। उसने कर्णसुवर्ण को अपनी राजधानी बनाई। आजकल कर्णसुवर्ण के अवशेष मुर्शिदाबाद जिले के गंगाभाटी नामक स्थान में पाए गए हैं।
शशांक के जीवन के विषय में निश्चित रूप से इतना ही कहा जा सकता है कि वह महासेन गुप्त का सेनापति नरेंद्रगुप्त था- महासामंत और शशांक उसकी उपाधियाँ हैं। उसने समस्त बंगाल और बिहार को जीत लिया तथा समस्त उत्तरी भारत पर विजय करने की योजना बनाई।
शशांक हिन्दू धर्म को मानता था और बौद्ध धर्म का कट्टर शत्रु था। इसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि शशांक के बाद बंगाल और बिहार में पाल वंशीय राजाओं ने प्रजा की सम्मति से नया राज्य स्थापित किया और बौद्ध धर्म को एक बार फिर आश्रय मिला। ‘शशांक’ पर प्रसिद्ध इतिहावेत्ता राखालदास बंद्योपाध्याय ने एक बड़ा ऐतिहासिक उपन्यास लिखा है।
गौड़ (नगर)
गौड़ (आधुनिक नाम) या ‘लक्ष्मणावती’ (प्राचीन नाम) या ‘लखनौती’ (मध्यकालीन नाम) पश्चिम बंगाल के मालदा जिला में स्थित एक पुराना नगर है। यह हिंदू राजसत्ता के उत्कर्षकाल में संस्कृत विद्या के केंद्र के रूप में विख्यात थी और महाकवि जयदेव, कविवर गोवर्धनाचार्य तथा धोयी, व्याकरणचार्य उमापतिघर और शब्दकोशकार हलायुध इन सभी विद्वानों का संबंध इस प्रसिद्ध नगरी से था। इसके खंडहर बंगाल के मालदा नामक नगर से 10 मील दक्षिण पश्चिम की ओर स्थित हैं।
बंगाल की राजधानी कालक्रम से काशीपुरी, वरेंद्र और लक्ष्मणवती रही थी। मुसलमानों का बंगाल पर (13वीं सदी में) आधिपत्य होने के पश्चात् बंगाल के सूबे की राजधानी कभी गौड़ और कभी पांडुआ रही। पांडुआ गौड़ से लगभग 20 मील दूर है। आज इस मध्युगीन भव्य नगर के केवल खंडहर ही बचे हैं। इनमें से अनेक ध्वंसावशेष प्राचीन हिंदू मंदिरों और देवालयों के हैं जिनका प्रयोग मसजिदों के निर्माण के लिये किया गया था।
परिचय:
1575 ई. में अकबर के सूबेदार ने गौड़ के सौंदर्य से आकृष्ट होकर अपनी राजधानी पांडुआ से हटाकर गौड़ में बनाई थी जिसके फलस्वरूप गौड़ में एकबारगी हो बहुत भीड़भाड़ हो गई थी। थोड़े ही दिनों बाद महामारी का प्रकोप हुआ जिससे वहां की जनसंख्या को भारी क्षति पहुँची। बहुत से निवासी नगर छोड्कर भाग गए। पांडुआ में भी महामारी का प्रकोप फैला और दोनों नगर बिल्कुल उजाड़ हो गए। कहा जाता है कि गौड़ में जहाँ अब तक भव्य इमारतें खड़ी हुई थी और चारों ओर व्यस्त नरनारियों का कोलाहल था, इस महामारी के पश्चात् चारों ओर सन्नाटा छा गया, सड़कों पर घास उग आई और दिन दहाड़े व्याघ्र आदि हिंसक पशु धूमने लगे। पांडुआ से गौड़ जाने वाली सड़क पर अब घने जंगल हो गए थे। तत्पश्चात् प्राय: 309 वर्षों तक बंगाल की यह शालीन नगरी खंडहरों के रूप में घने जंगलों के बीच छिपी पड़ी रही। अब कुछ ही वर्षों पूर्व वहाँ के प्राचीन वैभव को खुदाई द्वारा प्रकाश में लाने का प्रयत्न किया गया है। लखनौती में 8 वीं, 10 वीं सदी में पाल राजाओं का राज था और 12 वीं सदी तक सेन नरेशों का आधिपत्य रहा। इस काल में यहाँ अनेक हिंदू मंदिरों का निर्माण हुआ जिन्हें गौड़ के परवर्ती मुसलमान बादशाहों ने नष्टभ्रष्ट कर दिया। मुसलमानों के समय की बहुत सी इमारतों के अवशेष अभी यहाँ मौजूद है। इनकी मुख्य विशेषताएँ हैं ठोस बनावट तथा विशालता। सोना मसजिद प्राचीन मंदिरों की सामाग्री से निर्मित है। यह यहाँ के जीर्ण दुर्ग के अंदर अवस्थित है। इसकी निर्माणतिथि 1526 ई. है। इसके अतिरिक्त 1530 ई. में बनी नसरतशाह की मसजिद भी कलाउल्लेखनीय है।
प्राचीन काल तथा मध्यकाल में गौड़ एक प्रदेश था जो बंगाल (बंगदेश) में स्थित था।
स्थिति एवं विस्तार:
स्कंदपुराण माहेश्वर+वैष्णवखण्डके अनुसार गौड़देश की स्थिति वंगदेश से लेकर भुवनेश (भुवनेश्वर,/उत्कल /(उड़ीसा?) तक थी-: “वंगदेशं समारभ्य भुवनेशांतग: शिवे, गौड़ देश: समाख्यात: सर्वविद्या विशारद:।” पद्मपुराण (189- 2) में गौड़ नरेश नरसिंह का नाम आया है। अभिलेखों में गौड़ देश का सर्वप्रथम उल्लेख 553 ई. के हराहा अभिलेख में है जिसमें ईश्वर वर्मन मौखरी की गौड़देश पर विजय का उल्लेख है। बाणभट्ट ने गौड़नरेश शशांक का वर्णन किया है जिसने हषवर्धन के ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्धन का वध किया था। माधाईनगर के ताम्रपट्ट लेख से सूचित होता है कि गौड़नरेश लक्ष्मणसेन का कलिंग तक प्रभुत्व था।
गौड़ देश के नाम पर संस्कृत काव्य की परुषावृत्ति का नाम ही गौड़ी पड़ गया था। कायस्थों आदि की कई जातियाँ आज भी गौड़ कहलाती है। कुछ विद्वानों का मत है कि गुड़ के व्यापार का केंद्र होने के कारण ही इस प्रदेश का नाम गौड़ हो गया था।
गौड़ (आधुनिक नाम) या ‘लक्ष्मणावती’ (प्राचीन नाम) या ‘लखनौती’ (मध्यकालीन नाम) पश्चिम बंगाल के मालदा जिला में स्थित एक पुराना नगर है। यह हिंदू राजसत्ता के उत्कर्षकाल में संस्कृत विद्या के केंद्र के रूप में विख्यात थी और महाकवि जयदेव, कविवर गोवर्धनाचार्य तथा धोयी, व्याकरणचार्य उमापतिघर और शब्दकोशकार हलायुध इन सभी विद्वानों का संबंध इस प्रसिद्ध नगरी से था। इसके खंडहर बंगाल के मालदा नामक नगर से 10 मील दक्षिण पश्चिम की ओर स्थित हैं।
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कायस्थ भारत में रहने वाले हिन्दू समुदाय की एक जातियों का वांशिक कुल है। पुराणों के अनुसार कायस्थ प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन करते हैं। कायस्थ को वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण वर्ण धारण करने का अधिकार प्राप्त है।
कलकत्ता का एक कायस्थ
हिंदू धर्म की मान्यता हैंं कि कायस्थ धर्मराज श्री चित्रगुप्त भगवान की संतान हैं तथा श्रेष्ठ कुल में जन्म लेने के कारण इन्हें ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों धर्मों को धारण करने का अधिकार प्राप्त हैंं। बनारस के पंडितो द्वारा पेशवा दरबार को 1779 AD में दिए उत्तर के अनुसार चित्रगुप्त के वंशज “कायस्थ” ब्राह्मण एवं क्षत्रिय से श्रेष्ठ हैं ।
वर्तमान में कायस्थ मुख्य रूप से श्रीवास्तव, सिन्हा, वर्मा, स्वरूप, चित्रवंशी, सक्सेना, अम्बष्ट, निगम, माथुर, भटनागर, लाभ, लाल,बसु, शास्त्री , कुलश्रेष्ठ, अस्थाना, बिसारिया, कर्ण, खरे, सुरजध्वज, विश्वास, सरकार, बसु, परदेशी, बोस, दत्त, चक्रवर्ती, श्रेष्ठ, प्रभु, ठाकरे, आडवाणी, नाग, गुप्त, रक्षित, सेन ,बक्शी, मुंशी, दत्ता, देशमुख, बच्चन, पटनायक, नायडू, सोम, पाल, राव, रेड्डी, दास, मोहंती, देशपांडे, कश्यप, देवगन, अम्बानी, राय, वाल्मीकि आदि उपनामों से जाने जाते हैं। वर्तमान में कायस्थों ने राजनीति और कला के साथ विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में सफलतापूर्वक विद्यमान हैं। वेदों के अनुसार कायस्थ का उद्गम पितामह श्रृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा जी हैं। उन्हें ब्रह्मा जी ने अपनी काया[ध्यान योग] की सम्पूर्ण अस्थियों से बनाया था तभी इनका नाम काया+अस्थि = कायस्थ हुआ।
परिचय
स्वामी विवेकानन्द ने अपनी जाति की व्याख्या कुछ इस प्रकार की है:
“ मैं उन महापुरुषों का वंशधर हूँ, जिनके चरण कमलों पर प्रत्येक ब्राह्मण यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नमः का उच्चारण करते हुए पुष्पांजलि प्रदान करता है और जिनके वंशज विशुद्ध रूप से क्षत्रिय हैं। यदि अपने पुराणों पर विश्वास हो तो, इन समाज सुधारकों को जान लेना चाहिए कि मेरी जाति ने पुराने जमाने में अन्य सेवाओं के अतिरिक्त कई शताब्दियों तक आधे भारत पर शासन किया था। यदि मेरी जाति की गणना छोड़ दी जाये, तो भारत की वर्तमान सभ्यता शेष क्या रहेगा? अकेले बंगाल में ही मेरी जाति में सबसे बड़े कवि, इतिहासवेत्ता, दार्शनिक, लेखक और धर्म प्रचारक हुए हैं। मेरी ही जाति ने वर्तमान समय के सबसे बड़े वैज्ञानिक (जगदीश चन्द्र बसु) से भारतवर्ष को विभूषित किया है। स्मरण करो एक समय था जब आधे से अधिक भारत पर कायस्थों का शासन था। भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश तथा मध्य भारत में सातवाहन कायस्थ राजवंश सत्ता में रहे हैं। अतः हम सब उन राजवंशों की संतानें हैं। हम केवल बाबू बनने के लिये नहीं, अपितु हिन्दुस्तान पर प्रेम, ज्ञान और शौर्य से परिपूर्ण उस हिन्दू संस्कृति की स्थापना के लिये पैदा हुए हैं। ”
—स्वामी विवेकानन्द
परिवार
पद्म पुराण के अनुसार कायस्थ कुल के ईष्ट देव श्री चित्रगुप्त जी के दो विवाह हुए। इनकी प्रथम पत्नी सूर्यदक्षिणा (जिन्हें नंदिनी भी कहते हैं) सूर्य-पुत्र श्राद्धदेव की कन्या थी, इनसे ४ पुत्र हुए-भानू, विभानू, विश्वभानू और वीर्यभानू। इनकी द्वितीय पत्नी ऐरावती (जिसे शोभावती भी कहते हैं) धर्मशर्मा नामक ब्राह्मण की कन्या थी, इनसे ८ पुत्र हुए चारु, चितचारु, मतिभान, सुचारु, चारुण, हिमवान, चित्र एवं अतिन्द्रिय कहलाए। इसका उल्लेख अहिल्या, कामधेनु, धर्मशास्त्र एवं पुराणों में भी किया गया है। चित्रगुप्त जी के बारह पुत्रों का विवाह नागराज वासुकी की बारह कन्याओं से सम्पन्न हुआ। इसी कारण कायस्थों की ननिहाल नागवंश मानी जाती है और नागपंचमी के दिन नाग पूजा की जाती है। नंदिनी के चार पुत्र काश्मीर के निकटवर्ती क्षेत्रों में जाकर बस गये तथा ऐरावती के आठ पुत्रों ने गौड़ देश के आसपास (वर्तमान बिहार, उड़ीसा, तथा बंगाल) में जा कर निवास किया। वर्तमान बंगाल उस काल में गौड़ देश कहलाता था।[कृपया उद्धरण जोड़ें]
शाखाएं
इन बारह पुत्रों के दंश के अनुसार कायस्थ कुल में १२ शाखाएं हैं जो – श्रीवास्तव, सूर्यध्वज, वाल्मीकि, अष्ठाना, माथुर, गौड़, भटनागर, सक्सेना, अम्बष्ट, निगम, कर्ण, कुलश्रेष्ठ नामों से चलती हैं। अहिल्या, कामधेनु, धर्मशास्त्र एवं पुराणों के अनुसार इन बारह पुत्रों का विवरण इस प्रकार से है।।
नंदिनी-पुत्र
भानु
प्रथम पुत्र भानु कहलाये जिनका राशि नाम धर्मध्वज था| चित्रगुप्त जी ने श्रीभानु को श्रीवास (श्रीनगर) और कान्धार क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था| उनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री पद्मिनी से हुआ था एवं देवदत्त और घनश्याम नामक दो पुत्र हुए। देवदत्त को कश्मीर एवं घनश्याम को सिन्धु नदी के तट का राज्य मिला। श्रीवास्तव २ वर्गों में विभाजित हैं – खर एवं दूसर। इनके वंशज आगे चलकर कुछ विभागों में विभाजित हुए जिन्हें अल कहा जाता है। श्रीवास्तवों की अल इस प्रकार हैं – वर्मा, सिन्हा, अघोरी, पडे, पांडिया,रायजादा, कानूनगो, जगधारी, प्रधान, बोहर, रजा सुरजपुरा,तनद्वा, वैद्य, बरवारिया, चौधरी, रजा संडीला, देवगन, इत्यादि।
विभानु
द्वितीय पुत्र विभानु हुए जिनका राशि नाम श्यामसुंदर था। इनका विवाह मालती से हुआ। चित्रगुप्त जी ने विभानु को काश्मीर के उत्तर क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। इन्होंने अपने नाना जी सूर्यदेव के नाम से अपने वंशजों के लिये सूर्यदेव का चिन्ह अपनी पताका पर लगाने का अधिकार एवं सूर्यध्वज नाम दिया। अंततः वह मगध में आकर बसे।
विश्वभानु
तृतीय पुत्र विश्वभानु हुए जिनका राशि नाम दीनदयाल था और ये देवी शाकम्भरी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने उनको चित्रकूट और नर्मदा के समीप वाल्मीकि क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनका विवाह नागकन्या देवी बिम्ववती से हुआ एवं इन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा भाग नर्मदा नदी के तट पर तपस्या करते हुए बिताया जहां तपस्या करते हुए उनका पूर्ण शरीर वाल्मीकि नामक लता से ढंक गया था, अतः इनके वंशज वाल्मीकि नाम से जाने गए और वल्लभपंथी बने। इनके पुत्र श्री चंद्रकांत गुजरात जाकर बसे तथा अन्य पुत्र अपने परिवारों के साथ उत्तर भारत में गंगा और हिमालय के समीप प्रवासित हुए। वर्तमान में इनके वंशज गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं , उनको “वल्लभी कायस्थ” भी कहा जाता है।
वीर्यभानु
चौथे पुत्र वीर्यभानु का राशि नाम माधवराव था और इनका विवाह देवी सिंघध्वनि से हुआ था। ये सहारनपुर की अधिष्ठात्री देवी शाकम्भरी की पूजा किया करते थे। चित्रगुप्त जी ने वीर्यभानु को आदिस्थान (आधिस्थान या आधिष्ठान) क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। इनके वंशजों ने आधिष्ठान नाम से अष्ठाना नाम लिया एवं रामनगर (वाराणसी) के महाराज ने उन्हें अपने आठ रत्नों में स्थान दिया। वर्तमान में अष्ठाना उत्तर प्रदेश के कई जिले और बिहार के सारन, सिवान , चंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी,दरभंगा और भागलपुर क्षेत्रों में रहते हैं। मध्य प्रदेश में भी उनकी संख्या है। ये ५ अल में विभाजित हैं|
ऐरावती-पुत्र
चारु
ऐरावती के प्रथम पुत्र का नाम चारु था एवं ये गुरु मथुरे के शिष्य थे तथा इनका राशि नाम धुरंधर था। इनका विवाह नागपुत्री पंकजाक्षी से हुआ एवं ये दुर्गा के भक्त थे। चित्रगुप्त जी ने चारू को मथुरा क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था अतः इनके वंशज माथुर नाम से जाने गये। तत्कालीन मथुरा राक्षसों के अधीन था और वे वेदों को नहीं मानते थे। चारु ने उनको हराकर मथुरा में राज्य स्थापित किया। तत्पश्चात् इन्होंने आर्यावर्त के अन्य भागों में भी अपने राज्य का विस्तार किया। माथुरों ने मथुरा पर राज्य करने वाले सूर्यवंशी राजाओं जैसे इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ और राम के दरबार में भी कई महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण किये। वर्तमान माथुर ३ वर्गों में विभाजित हैं -देहलवी,खचौली एवं गुजरात के कच्छी एवं इनकी ८४ अल हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं- कटारिया, सहरिया, ककरानिया, दवारिया,दिल्वारिया, तावाकले, राजौरिया, नाग, गलगोटिया, सर्वारिया,रानोरिया इत्यादि। एक मान्यता अनुसार माथुरों ने पांड्या राज्य की स्थापना की जो की वर्तमान में मदुरै, त्रिनिवेल्ली जैसे क्षेत्रों में फैला था। माथुरों के दूत रोम के ऑगस्टस कैसर के दरबार में भी गए थे।
सुचारु
द्वितीय पुत्र सुचारु गुरु वशिष्ठ के शिष्य थे और उनका राशि नाम धर्मदत्त था। ये देवी शाकम्बरी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने सुचारू को गौड़ देश में राज्य स्थापित करने भेजा था एवं इनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री देवी मंधिया से हुआ। इनके वंशज गौड़ कहलाये एवं ये ५ वर्गों में विभाजित हैं: – खरे, दुसरे, बंगाली, देहलवी, वदनयुनि। गौड़ कायस्थों को ३२ अल में बांटा गया है। गौड़ कायस्थों में महाभारत के भगदत्त और कलिंग के रुद्रदत्त राजा हुए थे।
चित्र
तृतीय पुत्र चित्र हुए जिन्हें चित्राख्य भी कहा जाता है, गुरू भट के शिष्य थे, अतः भटनागर कहलाये। इनका विवाह देवी भद्रकालिनी से हुआ था तथा ये देवी जयंती की अराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने चित्राक्ष को भट देश और मालवा में भट नदी के तट पर राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इन क्ष्त्रों के नाम भी इन्हिं के नाम पर पड़े हैं। इन्होंने चित्तौड़ एवं चित्रकूट की स्थापना की और वहीं बस गए। इनके वंशज भटनागर के नाम से जाने गए एवं ८४ अल में विभाजित हैं, इनकी कुछ अल इस प्रकार हैं- डसानिया, टकसालिया, भतनिया, कुचानिया, गुजरिया,बहलिवाल, महिवाल, सम्भाल्वेद, बरसानिया, कन्मौजिया इत्यादि| भटनागर उत्तर भारत में कायस्थों के बीच एक आम उपनाम है।
मतिभान
चतुर्थ पुत्र मतिमान हुए जिन्हें हस्तीवर्ण भी कहा जाता है। इनका विवाह देवी कोकलेश में हुआ एवं ये देवी शाकम्भरी (वर्तमान सहारनपुर)की पूजा करते थे। चित्रगुप्त जी ने मतिमान को शक् इलाके में राज्य स्थापित करने भेजा। उनके पुत्र महान योद्धा थे और उन्होंने आधुनिक काल के कान्धार और यूरेशिया भूखंडों पर अपना राज्य स्थापित किया। ये शक् थे और शक् साम्राज्य से थे तथा उनकी मित्रता सेन साम्राज्य से थी, तो उनके वंशज शकसेन या सक्सेना कहलाये। आधुनिक इरान का एक भाग उनके राज्य का हिस्सा था। वर्तमान में ये कन्नौज, पीलीभीत, बदायूं, फर्रुखाबाद, इटाह,इटावा, मैनपुरी, और अलीगढ में पाए जाते हैं| सक्सेना लोग खरे और दूसर में विभाजित हैं और इस समुदाय में १०६ अल हैं, जिनमें से कुछ अल इस प्रकार हैं- जोहरी, हजेला, अधोलिया, रायजादा, कोदेसिया, कानूनगो, बरतरिया, बिसारिया, प्रधान, कम्थानिया, दरबारी, रावत, सहरिया,दलेला, सोंरेक्षा, कमोजिया, अगोचिया, सिन्हा, मोरिया, इत्यादि|
हिमवान
पांचवें पुत्र हिमवान हुए जिनका राशि नाम सरंधर था उनका विवाह भुजंगाक्षी से हुआ। ये अम्बा माता की अराधना करते थे तथा चित्रगुप्त जी के अनुसार गिरनार और काठियवार के अम्बा-स्थान नामक क्षेत्र में बसने के कारण उनका नाम अम्बष्ट पड़ा। हिमवान के पांच पुत्र हुए: नागसेन, गयासेन, गयादत्त, रतनमूल और देवधर। ये पाँचों पुत्र विभिन्न स्थानों में जाकर बसे और इन स्थानों पर अपने वंश को आगे बढ़ाया। इनमें नागसेन के 28 अल, गयासेन के35 अल, गयादत्त 85 अल, रतनमूल के 25 अल तथा देवधर के 12 अल हैं। कालाम्तर में ये पंजाब में जाकर बसे जहाँ उनकी पराजय सिकंदर के सेनापति और उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों हुई।
चित्रचारु
छठवें पुत्र का नाम चित्रचारु था जिनका राशि नाम सुमंत था और उनका विवाह अशगंधमति से हुआ। ये देवी दुर्गा की अराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचारू को महाकोशल और निगम क्षेत्र (सरयू नदी के तट पर) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। उनके वंशज वेदों और शास्त्रों की विधियों में पारंगत थे जिससे उनका नाम निगम पड़ा। वर्तमान में ये कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, बंदा, जलाओं,महोबा में रहते हैं एवं ४३ अल में विभाजित हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं- कानूनगो, अकबरपुर, अकबराबादी, घताम्पुरी,चौधरी, कानूनगो बाधा, कानूनगो जयपुर, मुंशी इत्यादि।
चित्रचरण
सातवें पुत्र चित्रचरण थे जिनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचरण को कर्ण क्षेत्र (वर्तमाआन कर्नाटक) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनके वंशज कालांतर में उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और वर्तमान में नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं। ये बिहार में दो भागों में विभाजित है: गयावाल कर्ण – गया में बसे एवं मैथिल कर्ण जो मिथिला में जाकर बसे। इनमें लाल दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि,मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित हैं। मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है, जो वंशावली अंकन की एक प्रणाली है। कर्ण ३६० अल में विभाजित हैं। इस विशाल संख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं जिन्होंने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर प्रवास किया। यह ध्यानयोग्य है कि इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है।
चारुण
अंतिम या आठवें पुत्र चारुण थे जो अतिन्द्रिय भी कहलाते थे। इनका राशि नाम सदानंद है और उन्होंने देवी मंजुभाषिणी से विवाह किया। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने अतिन्द्रिय को कन्नौज क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था। अतियेंद्रिय चित्रगुप्त जी की बारह संतानों में से सर्वाधिक धर्मनिष्ठ और संन्यासी प्रवृत्ति वाले थे। इन्हें ‘धर्मात्मा’ और ‘पंडित’ नाम से भी जाना गया और स्वभाव से धुनी थे। इनके वंशज कुलश्रेष्ठ नाम से जाने गए तथा आधुनिक काल में ये मथुरा, आगरा, फर्रूखाबाद, एटा, इटावा और मैनपुरी में पाए जाते हैं | कुछ कुलश्रेष्ठ जो की माता नंदिनी के वंश से हैं, नंदीगांव – बंगाल में पाए जाते हैं|