शादी - विवाह, नामकरण, गृह प्रवेश, काल सर्प दोष , मार्कण्डेय पूजा , गुरु चांडाल पूजा, पितृ दोष निवारण - पूजा , महाम्रत्युन्जय , गृह शांति , वास्तु दोष

पाँच गौड़ ब्राह्मणों शासन, गोत्र और पदवी

आदि गौड़ों का वृत्तान्त कहा जाता है कि लगभग एक सहस्र वर्ष बीते हैं कि बंगदेश के राजाओं ने पाँच गौड़ ब्राह्मणों को कार्यवश बुलाया था और सेवा से सन्तुष्ट कर वहीं रखा तब से इन लोगों का स्थान वहां भी पाया जाता है, परन्तु वास्तव में ये बंग निवासी नहीं हैं ॥

“श्री आदि गौड़ प्रदीपिका” ग्रंथ में पृष्ठ संख्या २७ पर लिखा है कि आदि गौड़ ब्राह्मणों के १४४४ शासनों में से ७०३ शासन सनाड्यों में गिने जाते हैं। प्रारम्भ से आदि गौड़ ब्राह्मण अयाचक रहे हैं परन्तु जिन्होंने याचक (याचना) और जाति विरुद्ध कार्य करने से ये सनाढ्य बाह्य कर दिये गये ।

विशेष :- आदि गौड़ों के अब तक जितने शासन, गौत्र आदि मिले हैं उन्हें में लिखता हूँ। लिखने का क्रम निम्न प्रकार है :- सर्व प्रथम गोत्र का नाम अर्थात् जिस ऋषि की सन्तान हो उस ऋषि का नाम गोत्र होता है। शासन शासन को अवटंक या अल्ल भी कहते हैं। प्रवर- पहले प्रवरों की अंकों में संख्या दी गई है फिर प्रवरों के नाम दिये गये हैं। पदवी-इसे नूख भी कहते हैं। इसके पश्चात् क्रमशः शाखा, सूत्र, वेद, माता, पिता, ऋषि, गणपति और कुल देवी आदि का नाम अंकित किया गया है ।

गोत्रों के विवरण के पश्चात एक शासन, गोत्र और के पदवी की सारिणी दी गई है शासनों का क्रम हिन्दी वर्णमाला है के अक्षरों के अनुसार रखा गया है।

गोत्र सम्बन्धी संक्षेप जानकारी

विश्वोमित्रो जमदग्नि र्भरद्वाजोऽथ गोतमः।
अत्रिर्वसिष्ठः कश्यप इत्येते गोत्रः कारकाः ॥


या० ( याज्ञ० स्मृति०)
भारतीय साहित्य के अनुसार वशिष्ठ, विश्वामित्र, भारद्वाज, जमदग्नि, गौतम, अत्रि और कश्यप ऋषियों की सन्तान ही गोत्र कही गई है। इन सात में अगस्त्य की सन्तान को भी गोत्र कहा गया है। ये गोत्र पहले तो सात व आठ ही थे परन्तु आगे चलकर इनकी संख्या हजारों लाखो तक पहुँच गई। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि किसी परिवार का जो आदि प्रवर्तक था. जिस महापुरुष से परिवार चला था उसका नाम परिवार का गोत्र था और उस परिवार के जो स्त्री-पुरुष थे वे आपस में भाई-बहिन समझे जाते थे, क्योंकि भाई बहिन की शादी अनुचित प्रतीत होती है। अतः एक गोत्र के पुत्र-पुत्री का विवाह वर्जित था।

गोत्र के सम्बन्ध में याज्ञवल्क्य तथा बोधयान का कथन है कि इनकी संख्या आठ न होकर सहस्रो है। प्रवर जैसे गोत्र ऋषियों के नाम है, वैसे प्रवर भी ऋषियों के नाम है। प्रवर शब्द वृञ् वरणे धातु से बना है. इसका अर्थ हुआ- चुन लेना प्र का अर्थ है- विशेष तौर पर जिसे खास तौर पर प्रार्थना के लिए यज्ञ में चुन लिया जावे, उसे प्रवर कहते हैं। ये प्राचीन ऋषि अनेक ऋषियों में से चुन लिये जाने के कारण प्रवर कहलाने लगे। पुरोहित ने जिन ऋषियों को चुन लिया वे पुरोहित के प्रवर हुए क्योंकि यजमान यज्ञ के लिए पुरोहित को चुनता है अतः पुरोहित के प्रवर ही यजमान के भी प्रवर समझे जाने लगे। इस प्रकार पुरोहित के और यजमान के प्रवर एक ही हो गये तथा एक प्रवर के लोगों में विवाह सम्बन्ध निषिद्ध समझा गया क्योंकि एक ही प्रवर के लोग आपस में भाई-बहन के समान है।

प्राचीन काल में जब वेदों का पठन पाठन था उस समय ऋषियों ने वेदों के पठन-पाठन करने की कई एक विधियाँ निर्धारित की थी, उन विधियों को शाखा भेद कहा करते थे। शाखा भेद के प्रवर्तक ही गोत्र-प्रवर्तक होते थे जो विद्यार्थी जिस शाखा का अध्ययन करता था, वह अपने को उसी शाखा और उसी शाखा पवर्तक ऋषि के गोत्र का कहता था. अतः उस जमाने में एक-एक वेद की अनके शाखाऐं और अनेक गोत्र हो गए थे और उनके ब्राह्मण अनके शाखाओं और गोत्रों में बँट गए थे।

प्राचीन वेद स्मृति उपनिषदादि एवं अर्वाचीन इतिहासकारों के अनेक प्रमाणों से यह स्पष्ट हो चुका है कि सर्व प्रथम सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी से उत्पन्न ब्राह्मण जाति (वर्ण) एक ही प्रकार की थी। इसके बाद ब्रह्मा के १० मानस पुत्र वशिष्ठ कश्यप मरीची आदि ऋषियों से अनेक ऋषिगण हुए और उन ऋषिगणों से पितृगण देवगण एवं मनुष्य हुए जो आदि काल से ही आदि गौड़ कहलाये। हमारे ऋषि-महर्षि ही हमारे गोत्र कहलाये।

सम्यग व्यवहार सिद्धि के लिए प्रतिपादित की। अर्थात् जिस वंश में जो आदि पुरुष परम कीर्ति वाला प्रतापी, सिद्ध पुरुष, तपस्वी ऋषि, मनीषी, कुलप्रवर्त्तक आचार्य हुआ हो उसके नाम से ही गोत्र का नामकरण हो गया, जैसे- मनुष्यों को अपनी पहचान बताने के लिए अपने नाम के साथ पिता, पितामह प्रतितामह आदि का नाम बताकर पूर्ण परिचय देता है। इस कारण आदि काल से आज तक ब्राह्मण जाति के लोग अपने आपको वशिष्ठ, भारद्वाज, गौतम, अत्रि कश्यपादि की सन्तान बताकर गौरव का अनुभव करते हैं। यहाँ यह भी लिख देना उचित है कि प्रत्येक गोत्र के साथ प्रतिष्ठा के नाम होते थे। जो जिस ग्राम व स्थान में बसे व जिसकी जैसी योग्यता होती थी उसी प्रतिष्ठा से उसे पुकारा जाता था। जैसे- चतुर्वेदी, द्विवेदी, त्रिवेदी, पाठक, शुक्ल, पांडे, दिक्षित, उपाध्याय, वाजपेयी एवं अग्निहोत्री आदि। इनमें वेद पढ़ने से द्विवेदी, त्रिवेदी आदि कहाये, अध्यापक होने से उपाध्याय पाठक और भट्टाचार्य कहाये। यज्ञादि कर्मानुष्ठान करने से वाजपेयी, अग्निहोत्री आरि दिक्षित कहाये श्रोत्रीय और स्मृति कर्मानुष्ठान करने से मिश्र. पुरोहित और शुद्ध निर्मल गुण-कर्मों के अनुष्ठान से शुक्ल कहाये।

गौड़ ब्राह्मण के पाँच भेदों में से एक खास गौड़ ब्राह्मण भी कहा गया है। जिसे आदि गौड़ भी कहते हैं। गौड़ देश में निवास करने वाले ब्राह्मण कहलाये। जाति भास्कर में लिखा है कि बंगदेश से लेकर अमरनाथ तक गौड़ देश स्थित है। ब्राह्मोत्पत्ति निबन्ध के निर्णय अध्याय में लिखा है कि जो वेदपाठी, तपस्वी ब्राह्मण सर्वप्रथम ग्रहह्मक्षेत्र में पैदा हुए थे. वेद के धारण करने वाले तथा सदाचार प्रवर्तक थे। इन्हीं ब्राह्मणों को आदि गौड़ जानना चाहिए।

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