छः शास्त्रों का बनना
पहले शास्त्र ‘न्याय दर्शन’ जिसको गौतम ऋषि ने बनाया था. इसमे प्रमाण बाद ही पर विचार किया गया था। और प्रमेय के सिद्ध करने के लिये जो प्रमाण आवश्यकीय है। और जिन साधनों से विचार करने की आवश्यकता होती है और जिन कारणों से विचार में त्रुटि आ जाती है और जिन कारणों से ज्ञात हो जाता है कि विचार पूरा हो गया उसकी व्याख्या की गई और यह भी सूचित कर दिया गया कि मनुष्य जीवन का उसके मुख्य उद्देश्य पर पहुँचना, बिना इन वस्तुओं के ज्ञान के असंभव है और इसके निमित्त ऋषि गौतम ने १६ पदार्थों का ज्ञान आवश्यकीय समझा था (१) प्रमाण (2) प्रमेय (३) संशय (४) प्रयोजन (५) दृष्टान्त (६) सिद्धान्त (७) अवयव (८) तर्क (4) निर्णय (१०) वाद (११) जन्य ((१२) विचंडा (१३) हेत्वामास (१४) छल (१५) जाति (१६) निग्रहस्थान |
इस प्रकार से ऋषि गौतन ने प्रमाण बाद को को स्पष्ट कर दिया था।
इसके पश्चात् कणाद मुनि हुये इनके बनाये हुये शास्त्र का नाम “वैशेषिकदर्शन” है इन्होंने प्रमेय वस्तुओं का साथ म्यं और वैधर्म्य बतलाने के निमित्त ही इस शास्त्र को बनाया था
इस दर्शन में कणाद जी ने प्रमेय को छः भागो में विभक कर दिया था-
(१) द्रव्य (२) गुण (३) कर्म (४) सामान्य (५) विशेष (६) सम्बाय।
अब उन्होंने द्रव्यों में पदार्थ लिये अर्थात [१] पृथ्विी [२] जल [३] तेज [४] वायु [५] आकाश [६] काल [७] दिशा [8] मन [9] आत्मा अर्थात् जीवात्मा व परमात्मा।
इसी प्रकार २४ गुण बतलाये
[१] रूप [२] रस [३] गन्ध [४] स्पर्श [५] संख्या [६] परिमान [७] पृथकत्व [8] संयोग [9] विभाग [१०] प्रत्व [११] बुद्धि[१२] अप्रत्य] [१३] सुख [१४] दुःख [१५] इच्छा [१६] द्वेष [१७] प्रयत्न [१८] गुरुत्व (१9) द्रवत्व (२०) स्नेह (२१) संस्कार (२२) धर्म (२३) अवमं (२४) शब्द
इसी प्रकार ५ तरह के कर्म बतलाये (१) उत्तेपण (२) अवक्षेपण (३) आङ चन (४) प्रसारण (५) गमन और सामान्य
विशेषादि बता कर बड़ी योग्यता से प्रमेय बाद की व्याख्या करदी थी ।
इसके पश्चात् माहात्मा कपिल ऋषि हुये थे जिन्होंने तीसरा शास्त्र बनाया जिस का नाम “सांख्यदर्शन” है। कपिल जी ने कहा था कि प्रमाण और प्रमेय का ज्ञान तो हो गया परन्तु गंभीर विचारों में प्रत्येक नहीं हो सकता अतः दुःख और सुख जो दो गुण हैं उनके आधार की खोज करनी चाहिए जिससे तीन प्रकार के दुःखों की निवृति हो जावे। जब उन्होंने देखा सि संसार में दो प्रकार के पदार्थ हैं एक जड़ दूसरे चेतन अतएव उन्होंने प्रकृति पुरुष का पृथक पृथक जानना मुक्ति का कारण बताया कारण यह है कि वैशेषिक में बतला चुके थे कि साधर्म्य से सुख तथा वैधय से दुःख की प्राप्ति होते हैं। इसी कारण चेतन जीवात्मा को वेतन और अचेतन का ज्ञान आवश्यक है । उन्होंने सिद्ध किया कि जितना जगत हैं उसका उपादान कारण प्रकृति है परन्तु प्रकृति जड़ है और दुःख देने वाली है अतएव उसके कार्य जगत से जितनी प्रार्थना की जावेगी कुछ मी मुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए प्रकृति पुरुष का दिब्रेक करने वाला सांख्य शास्त्र बतलाया और अच्छे प्रकार से इस विषय को सिद्ध किया।
इसके पश्चात महात्मा पाञ्जलि ऋषि हुये। इनके बनाये शास्त्र का नाम “योगदर्शन । पातञ्जलि ऋऋषि ने कहा कि संसार में जितने दुःख होते हैं वे सब चित की वृत्तियों के विक्षेप से अर्थात् मन के विचारों के स्थिर न होने से उत्पन्न होते हैं और प्रकृति के पदार्थों को मन जान कर आगे चल देता है जिससे चित वृति एकान्त नहीं होती और चित्त के एकान्त (स्थिर) न होने से सुख की प्राप्ति नहीं होती। अतएव उन्होंने कहा कि योग करके चित की वृत्तियों को रोकना चाहिए क्योंकि संसार के समीप पदार्थों से चित की वृत्ति का अनुरोध नहीं हो सकता अतः अनन्त परमेश्वर के साथ अथवा चैतन्य जीवात्मा का परमात्मा के साथ योग होना चाहिए।
इसके लिए उन्होंने अंग नियत किये ।
(१) यम (२) नियम (३) आसन (४) प्राणायाम (५) प्रत्याहार (६) धारा (७) ध्यान (८) समाधि ।
इस प्रकार से पातञ्जलि मुनि ने अविधा को दूर करके जड़ से प्रीति हटा कर चैतन्य परमात्मा से योग करके सुख की पाति का निश्रय करा दिया ।
इसके पश्चात् जैमिनी ऋषि हुये इन्होंने मीमांसाशास्त्र बनाया इनका विचार यह था कि योग से चित्त के रोकने में जो बुरे कर्मों से संसार में पैदा हुये अविद्या के संस्कार विघ्न कारक होंगे। उनसे कपी मी मन की वृतियाँ रुक न सकेंगी अतरव पहिले मन के मल रूपी दोष दूर करने के लिए शुभ नैमित्तिक कर्मा को करना चाहिए जिससे वित में दोप का लेप न रहे और मन का प्रवाह जो दुष्कमों की ओर लग रहा है हट कर अच्छे कर्मों की ओर लग जावे फिर उस मल दोष को दूर होने के पश्चात् विक्षेप के दूर करने के साधन उपासना योग से काम चल जायगा उन्होंने वृत दान इत्यादि बहुत से कर्म मल दोष के दूर करने के लिये बतलाये और उनकी विधि अपने “ मीमांसाशास्त्र ” में अच्छे प्रकार से प्रकाशित करदी ।
इसके पश्चात् व्यास गुनी हुए जिन्होंने “वेदान्त शास्त्र” बनाया इनका विचार यह था कि प्रमाण का भी ज्ञान हो चुका और प्रमेय भी जान लिया और जड़ चेतन अर्थात् प्रकृत्ति पुरुष को भी पृथक पृथक समझ लिया और योग करने का विचार भी ठीक है ओर योग में जो विघ्न पड़ेगा उसके रोकने को “मीमांसाशास्त्र” के कर्म मी याद हो गये परन्तु जिस चेतन के साथ योग करना है उसको तो बिल्कुल जाना ही नहीं अतः ब्रह्म के जानने की इच्छा करनी चाहिए। इसलिए उन्होंने ” वेदान्त शास्त्र ” बनाया जिसमें केवल ब्रह्म के यथार्थ रूप का ज्ञान हो जाये। जिससे इस सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति और नाश होता है। इस कारण सम्पूर्ण वेदान्त शास्त्र में ब्रह्म ज्ञान बतलाया।
इस प्रकार “न्याय शास्त्र” गौतम ऋषि ने बताया. “वैशेषिकशास्त्र” कणाद मुनि ने रचा, “सांख्य शास्त्र” को कपिल आचार्य ने लिखा, “योग शास्त्र” का पातञ्जलि ने निर्माण किया, “मीमांसा शास्त्र” जैमिनी ने और “वेदान्त शास्त्र” को व्यास ने बनाया | Read more सूर्य सिद्धान्त
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