Vedic Dharm वैदिक धर्म
वैदिक धर्म कर्म पर आधारित था। यह धर्म पूर्णतः प्रतिमार्गी है। वैदिक देवताओं में पुरुष भाव की प्रधानता है। अधिकांश देवताओं की अराधना मानव के रूप में की जाती थी, किन्तु कुछ देवताओं की आराधना पशु के रूप में भी की जाती थी। ‘अज एकपाद’ और ‘अहितर्बुध्न्य’ दोनों देवताओं की परिकल्पना पशु के रूप में की गई है। मरुतों की माता की परिकल्पना ‘चितकबरी गाय’ के रूप में की गई है। इन्द्र की गाय खोजने वाला ‘सरमा’ (कुतिया) श्वान के रूप में है। इसके अतिरिक्त इन्द्र की कल्पना ‘वृषभ’ (बैल) के रूप में एवं सूर्य की ‘अश्व’ के रूप में की गई है। ऋग्वेद में पशुओं की पूजा का प्रचलन नहीं था। ऋग्वैदिक देवताओं में किसी प्रकार का उँच-नीच का भेदभाव नहीं था। वैदिक ऋषियों ने सभी देवताओं की महिमा गाई है। ऋग्वैदिक लोगों ने प्राकृतिक शक्तियों का ‘मानवीकरण’ किया है। इस समय ‘बहुदेववाद’ का प्रचलन था। ऋग्वैदिक आर्यो की देवमण्डली तीन भागों में विभाजित थी- आकाश के देवता – सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, आदिंत्यगग, अश्विनद्वय आदि। अन्तरिक्ष के देवता – इन्द्र, मरुत, रुद्र, वायु, पर्जन्य, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहिर्बुघ्न्य। पृथ्वी के देवता- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, तथा नदियां। इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन था, यह निर्धारित करना कठिन है। ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की स्तुति की उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का अरोपण कर दिया। मैक्समूलर ने इस प्रवृत्ति की ‘हीनाथीज्म’ कहा है। सूक्तों की संख्या की दृष्टि यह मानना न्यायसंगत होगा कि इनका सर्वप्रधान देवता इन्द्र था।
इन्द्र मुख्य लेख : इन्द्र ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय ‘इन्द्र’ का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है। ऋग्वेद के क़रीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्द्र को वर्षा का देवता माना जाता था। उन्होंने वृक्ष राक्षस को मारा था इसीलिए उन्हें ‘वृत्रहन’ कहा जाता है। अनेक किलों को नष्ट कर दिया था, इस रूप में वे ‘पुरन्दर’ कहे जाते हैं। इन्द्र ने वृत्र की हत्या करके जल का मुक्त करते हैं इसलिए उन्हें ‘पुर्मिद’ कहा गया। इन्द्र के लिए एक विशेषण ‘अन्सुजीत’ (पानी को जीतने वाला) भी आता है। इन्द्र के पिता ‘द्योंस’ हैं, ‘अग्नि’ उसका यमज भाई है और ‘मरुत’ उसका सहयोगी है। विष्णु ने वृत्र के वध में इन्द्र की सहायता की थी। ऋग्वेद में इन्द्र को समस्त संसार का स्वामी बताया गया है। उसका प्रिय आयुद्ध ‘बज्र’ है इसलिए उन्हें ‘बज्रबाहू’ भी कहा गया है।
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स्वामी दयानंद सरस्वती जिन्होंने आर्य समाज क स्थापना की है। उन्होंने हिन्दू धर्म को वैदिक धर्म कहा है। उनका मानना था की वैदिक धर्म ही सनातन धर्म है और इसका अस्तित्व वैदिक काल से है। क्योंकी यह धर्म वेदों पर आधारित अनंत ग्रंथों का सार है। इसीलिए हिन्दू धर्म को सनातन धर्म कहा जाता है।
अक्सर लोग जानना चाहते है की सनातन धर्म की उत्पत्ति कव हुई। इतिहास हमें बताता हैं की विश्व के सभी धर्मों में यह (हिन्दू धर्म ) सवसे प्राचीन है। कुछ विद्वानों के अनुसार सनातन धर्म को 90 हजार वर्ष पुराना माना जाता है। इस धर्म के अन्दर अनेकों उपासना पद्धतियाँ, मत, पंथ, और दर्शन समायी हुई है।
यह एक एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा परमात्मा, मोक्ष ध्यान धरण और समाधि, पुनर्जन्म जैसे गूढ अवधारणा की व्याख्या करता है। इस धर्म को वैदिक कालीन कहा जाता है। अतः यह कहा जा सकता है की इस धर्म की स्थापना सृष्टि के सृजन काल से ही है।
सनातन धर्म के संस्थापक कौन है यह प्रश्न अक्सर बहुत लोग के मन में उठता है। जैसा की हम हम जानते हैं की यह धर्म वैदिक काल से चली आ रही है। जैसे वेदों की उत्पत्ति सृष्टि के आरंभ काल से ही मानी जाती है उसी तरह इस धर्म की उत्पत्ति भी सृष्टि के सृजन काल से हुई है।
अन्य धर्मों की तरह, कोई व्यक्ति विशेष इस धर्म का संस्थापक नहीं है। जैसे इसाई धर्म के संस्थापक ईसा मसीह को माना जाता है। इस्लाम धर्म के संस्थापक मुहम्मद साहव को माना जाता है। लेकिन हिन्दू धर्म के संस्थापक कौन हैं इसका केवल कयास ही लगाया जा सकता है।
कुछ विद्वानों के अनुसार वेदों की उत्पत्ति के साथ ही इस धर्म की भी शुरुआत हो गयी थी। तभी तो इसे वैदिक धर्म भी कहा जाता है। फलतः इस तथ्य के आधार पर वेदों के रचनाकार ब्रह्मा जी को इस धर्म का संस्थापक कहा जा सकता है।
सनातन धर्म की विशेषता
इस धर्म में असंख्य देवी देवता है। इसमें हर ब्यक्ति को अपने अनुसार देवी-देवताओं की मानने और पूजा करने की स्वतंत्रता है। आप साकार साधना में बिश्वास करें या निराकार में इसमें कोई बंदिश नहीं है। आप मूर्ति पूजा में बिश्वास करें या न करें।
आप ईश्वर के आस्तित्व को केवल निराकार रूप में स्वीकारें या साकार रूप में यह केवल आप पर निर्भर है। इसके लिए आप बाध्य नहीं हैं। सनातन धर्म की विशेषता है की इसके उपासना पद्धति में स्त्री और पुरुष दोनो को समान स्थान प्राप्त है।
अति प्राचीन काल में इस धर्म के लोग मुख्य रूप से पाँच भागों में बंटे नजर आते थे। कालांतर में अलग-अलग अवधारणा की समाप्ति हुई तथा दो ही संप्रदाय शेष रहे शैव और वैष्णव। इसमें बताया गया की सवसे बड़ी शक्ति परम पिता परमेश्वर हैं, जिसे आप शिव कहें या विष्णु कहें।
- गणपत्य – ये भगवान गणेश को अपने अधिपति मानकर उनकी ही पूजा करते थे।
- शैव – यह समुदाय भगवान शिव को आराध्य मान कर उनकी ही आराधना करते थे।
- वैष्णव – भगवान विष्णु की के उपासक वैष्णव संप्रदाय कहलाते थे।
- सौर – जो सूर्य को ही सर्वोच मानते थे और केवल सूर्य की ही पूजा करते थे।
- शाक्त – माँ शक्ति के उपासक शाक्त समुदाय कहे जाते थे।
“वैदिक धर्म सर्वश्रेष्ठ क्यों है?”
संसार के सभी मतों पर दृष्टि डालते हैं तो हम यह पाते हैं कि सिख धर्म का लगभग 319 वर्षों का इतिहास है। इसे श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने स्थापित किया था। इस्लाम पर विचार करें तो यह भी 1500 वर्षों से अधिक पुराना नहीं है। ईसाई मत लगभग 2000 वर्ष पुराना है। इससे पहले यह सभी मत संसार में अस्तित्व नहीं रखते थे। तब इनके अनुयायियों के पूर्वज किस मत का पालन करते थे, यह कभी कोई विचार ही नहीं करता। ईसाई मत से भी प्राचीन बौद्ध, जैन तथा स्वामी शंकर का अद्वैत मत है। इनकी अवधि अधिकतम 2500 वर्ष ही निर्धारित होती है। इससे पूर्व पारसी मत था। इनकी धर्म पुस्तक का नाम ‘अवेस्ता’ है। यह मत बौद्ध, जैन आदि के समकालीन व इससे भी पुराना है। 5000 वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध तक पहुंचे तो ज्ञात होता है कि तब पूरे विश्व में वेद मत वा वैदिक धर्म से इतर कोई धर्म, मत, पन्थ व सम्प्रदाय आदि नहीं था। सभी मत महाभारत काल के बाद उत्पन्न हुए हैं। सृष्टि के आरम्भ काल से महाभारत काल तक पूरे विश्व में केवल वैदिक मत ही था। वैदिक मत वेद से अस्तित्व में आया है। वेद चार हैं जिनके नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद हैं। यह चार वेद सृष्टि के आरम्भ में, अब से 1.96 अरब वर्ष पूर्व, अस्तित्व में आये। वेदों का ज्ञान इस सृष्टि के रचयिता सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को दिया था। ईश्वर सर्वव्यापक है और इस कारण मनुष्य की जीवात्मा के भीतर भी विद्यमान है। वह आत्मा में प्रेरणा करके ज्ञान देता है। जिस मनुष्य का आत्मा व मन जितना अधिक स्वच्छ व पवित्र होता है, वह उतना ही अधिक ईश्वर के ज्ञान व प्रेरणा को ग्रहण कर सकता है। आदि चार ऋषियों की आत्मा, मन, बुद्धि, हृदय तथा ज्ञानेन्द्रियां सभी वर्तमान मनुष्यों की तुलना में अधिकतम पवित्र थे, इस लिये उन्हें ही ईश्वर ने वेदों का ज्ञान दिया था। ईश्वर इस संसार का रचयिता है। वह सर्वज्ञ व सर्वव्यापक है अतः उसे सृष्टि का ठीक-ठीक ज्ञान है। यदि उसके ज्ञान में किंचित भी न्यूनता होती तो वह मनुष्यों को वेदों का सर्वांगपूर्ण सत्य ज्ञान न दे पाता। ईश्वर के साक्षात्कार कर्त्ता एवं वेदों के रहस्य के भी साक्षात्कार कर्ता ऋषि दयानन्द ने वेद एवं संसार की प्रायः सभी पुस्तकों का अध्ययन कर घोषणा की है कि ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।
वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।’ यह बात ऋषि दयानन्द के वेद भाष्य एवं इतर ग्रन्थों को पढ़ने पर सत्य सिद्ध होती है। ऋषि दयानन्द (1825-1883) ऐसे विद्वान व ऋषि हुए हैं जिन्होंने अपनी मान्यताओं की परीक्षा के लिये सभी मतों के आचार्यों के शंका समाधान व शास्त्रार्थ का स्वागत किया। उन्होंने अपने जीवन में प्रायः सभी मतों के आचार्यों से शास्त्रार्थ व शंका-समाधान सहित वैदिक धर्म के सिद्धान्तों पर वार्तालाप किये और सभी को सन्तुष्ट किया। सभी मतों के आचार्यों से शास्त्रार्थ में उनका पक्ष ही सत्य सिद्ध हुआ।
वैदिक धर्म ऐतिहासिक
ऐतिहासिक वैदिक धर्म (जिसे वैदिकवाद, वेदवाद या प्राचीन हिंदू धर्म के रूप में भी जाना जाता है), और बाद में ब्राह्मणवाद ने उत्तर-पश्चिम भारत (पंजाब और पश्चिमी गंगा) के कुछ भारतीय-आर्य लोगों के बीच धार्मिक विचारों और प्रथाओं का गठन किया। वैदिक काल (1500-500 ईसा पूर्व) के दौरान प्राचीन भारत का मैदान। ये विचार और व्यवहार वैदिक ग्रंथों में पाए जाते हैं, और कुछ वैदिक अनुष्ठान आज भी प्रचलित हैं। यह उन प्रमुख परंपराओं में से एक है, जो हिंदू धर्म को आकार देती हैं, हालांकि वर्तमान हिंदू धर्म ऐतिहासिक वैदिक धर्म से अलग है।
वैदिक धर्म का विकास प्रारंभिक वैदिक काल (1500–1100 ईसा पूर्व) के दौरान हुआ था, लेकिन इसकी जड़ें यूरेशियन स्टेपे सिंटश्टा संस्कृति (2200-1800 ईसा पूर्व) और उसके बाद के मध्य एशियाई ऐंड्रोनोवो संस्कृति (2000-900 ईसा पूर्व) और संभवतः सिंधु घाटी की सभ्यता (2600-1900 ईसा पूर्व) में भी हैं।[1] यह मध्य एशियाई भारत-आर्यों के धर्म का एक सम्मिश्रण था, जो खुद “पुराने मध्य एशियाई और नए भारत-यूरोपीय तत्वों का एक समन्वित मिश्रण” था, जिसने “विशिष्ट धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं” से उधार लिया था। बैक्ट्रिया-मैरेजा संस्कृति; और सिंधु घाटी के हड़प्पा संस्कृति के अवशेष।
वैदिक काल के दौरान (1100-500 ईसा पूर्व) ब्राह्मणवाद वैदिक धर्म से विकसित हुआ, जो कुरु-पंचला क्षेत्र की विचारधारा के रूप में विकसित हुआ, जो कुरु-पंचम युग के बाद एक व्यापक क्षेत्र में विस्तारित हुआ।
आधुनिक आर्य समाज इसी धार्मिक व्यवस्था पर आधारित हैं। वैदिक संस्कृत में लिखे चार वेद इसकी धार्मिक किताबें हैं। वेदिक मान्यता के अनुसार ऋग्वेद और अन्य वेदों के मन्त्र परमेश्वर अथवा परमात्मा द्वारा ऋषियों को प्रकट किये गए थे। इसलिए वेदों को ‘श्रुति’ यानि, ‘जो सुना गया है’ कहा जाता है, जबकि श्रुति ग्रन्थौ के अनुशरण कर वेदज्ञ द्वारा रचा गया वेदांगादि सूत्र ग्रन्थ स्मृति कहलाता है। जिसके नीब पर वैदिक सनातन धर्म और वैदिक आर्यसमाजी आदि सभी का व्यवहार का आधार रहा है। कहा जाता है। वेदों को ‘अपौरुषय’ यानि ‘जीवपुरुषकृत नहीं’ भी कहा जाता है, जिसका तात्पर्य है कि उनकी कृति दिव्य है, अतः श्रुति मानवसम्बद्ध दोष मुक्त है। “प्राचीन वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म” का सारा धार्मिक व्यवहार विभन्न वेद शाखा सम्बद्ध कल्पसूत्र, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र आदि ग्रन्थौं के आधार में चलता है। इसके अलावा अर्वाचीन वैदिक (आर्य समाज) केवल वेदों के संहिताखण्ड को ही वेद स्वीकारते है।
वैदिक धर्म और सभ्यता की जड़ में सन्सार के सभी सभ्यता किसी न किसी रूपमे दिखाई देता है। आदिम हिन्द-अवेस्ता धर्म और उस से भी प्राचीन आदिम हिन्द-यूरोपीय धर्म तक पहुँचती हैं, जिनके कारण वैदिक धर्म यूरोप, मध्य एशिया/ईरान के प्राचीन धर्मों में भी किसी-न-किसी रूप में मान्य थे, जैसे यजञमे जिनका आदर कीया जाता है उन शिव(रुद्र) या बुद्ध और पार्वती । इसी तरह बहुत से वैदिकशब्दों के प्रभाव सजातीय शब्द अवेस्ताधर्म और प्राचीन यूरोप धर्मों में पाए जाते हैं, जैसे कि सोम (फ़ारसी: होम), यज्ञ (फ़ारसी: यस्न), पितर- फादर,मातर-मादर,भ्रातर-ब्रदर स्वासार-स्विष्टर नक्त-नाइट् इत्यादि।
वेदों का ज्ञान प्राप्त होने पर ऋषियों ने वेदाध्ययन व वेद प्रचार की परम्परा को आरम्भ किया। सृष्टि के आरम्भ में प्रचलित यह परम्परा ही महाभारत काल तक तथा उसके बाद ऋषि दयानन्द तक व अब गुरुकुलों के माध्यम से चल रही हैं। वेद की सभी मान्यतायें संसार के सभी मनुष्यों के लिये हितकारी हैं। इससे किसी मनुष्य के प्रति पक्षपात व अन्याय नहीं होता। सभी शारीरिक, बौद्धिक, आत्मिक व सामाजिक क्षमता के अनुसार अपनी-अपनी उन्नति कर सकते हैं। वेदों में न अन्धविश्वास हैं न कुरीति व मिथ्या परम्परायें। वेदों का ज्ञान पूर्ण तर्क संगत, सत्य एवं प्राणीमात्र के लिये हितकारी है। वेदों के सत्य सिद्धान्तों पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं जिससे वेद सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हो जाते हैं और वेदों से प्रचलित मनुष्य के सभी धर्म व कर्तव्य भी सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होते हैं।
वेदों के अध्ययन से ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित जीवात्मा और सृष्टि का अनादि कारण प्रकृति का ज्ञान भी उपलब्ध होता है। ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति ही संसार के मूल अनादि तत्व व पदार्थ हैं। ईश्वर व जीवात्मा चेतन तत्व हैं तथा प्रकृति सूक्ष्म व जड़ पदार्थ है। विज्ञान जिस परमाणु को मानता है वह प्रकृति से बने हैं। प्रकृति परमाणुओं से भी पूर्व की अवस्था है। इन परमाणुओं की रचना ईश्वर ने ही की है। परमात्मा सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म तथा प्रकृति के भीतर भी व्यापक है। इस कारण वह परमाणु एवं सृष्टि की रचना कर सकता है व उसने की भी है। यह भी कह सकते हैं कि मूल प्रकृति से ही परमाणु व कार्य जगत बना है।
संसार में तीन पदार्थों ईश्वर, जीव तथा प्रकृति के अनादि अस्तित्व को त्रैतवाद का सिद्धान्त कहा जाता है। ईश्वर ने सृष्टि की रचना क्यों की? इसका उत्तर है कि ईश्वर ने अपने ज्ञान व सृष्टि रचना की सामर्थ्य को जीवों के कल्याण के लिये प्रकट किया है। यदि ईश्वर सृष्टि की रचना न करता तो कौन कहता कि ईश्वर सृष्टि रचयिता है व वह सृष्टि की रचना कर सकता है। ईश्वर ने सृष्टि की रचना इस लिये की है कि सृष्टि में विद्यमान, मनुष्य की दृष्टि में, अनन्त जीवों को उनके पूर्व जन्मों के शुभ व अशुभ कर्मों का फल प्राप्त करा सके।
संसार के सर्वाधिक प्रचलित मतों को इस जन्म-मृत्यु व पुनर्जन्म के रहस्य व सिद्धान्त का ज्ञान नहीं है। वेद जीवात्मा के पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानते हैं। पुनर्जन्म का कारण जीवात्मा के शुभ व अशुभ कर्म तथा उनका सुख व दुःख रूपी फल व भोग होता है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त ज्ञान, तर्क व अनेक आधारों पर सत्य सिद्ध होता है। संसार के अनेक मत अज्ञानतावश पुनर्जन्म के सत्य सिद्धान्तों को न जानते हैं और न मानते हैं। पं. लेखराम जी ने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में पुनर्जन्म पर एक पुस्तक लिखी थी जिसमें उन्होंने पुनर्जन्म विषयक सभी प्रश्नों को सम्मिलित कर उनका तर्कपूर्ण उत्तर दिया है। वैदिक धर्मियों के परिवारों में जब सन्तान जन्म लेती है तो उसका जातकर्म संस्कार होता है। इस संस्कार में ईश्वर के दिये वेदमन्त्र बोले जाते हैं। बच्चों को ओ३म् नाम सुनाया जाता है। उसे यह भी बताया जाता है कि तू वेद अर्थात् ज्ञान व कर्म की शक्ति से युक्त है और तुझे वेद व सांसारिक ज्ञान प्रापत कर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, यज्ञ, पुरुषार्थ, परोपकार तथा दान आदि करके एवं अपने मन को संयम में रखकर मोक्ष को प्राप्त करना है। मोक्ष का सिद्धान्त जैसा वेद व वैदिक साहित्य में है, किसी मत व मतान्तर में नहीं है। इस सिद्धान्त से अन्य मतों की अनभिज्ञता का कारण हमें उनकी अज्ञानता प्रतीत होता है। वैदिक धर्म में मनुष्य की मृत्यु होने पर उसका दाहकर्म व अन्त्येष्टि कर्म किया जाता है। अन्य मतों में प्रायः ऐसा नहीं होता। वहां मृतक शरीर को भूमि में गाड़ने का विधान है। इसका कारण उन्हें जीवात्मा और शरीर का ठीक-ठीक ज्ञान न होना है। आत्मा के शरीर से निकलने के बाद जड़ शरीर बचता है। यह शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना हुआ होता है। अतः इसे अग्नि में जलाकर पंच-तत्वों में विलीन करना होता है। शरीर में हमें जो सुख दुःख होता है वह हमारी आत्मा को होता है। आत्मा के निकल जाने पर शरीर को जलाने से उसे किंचित भी कष्ट या दुःख नहीं होता। अतः सभी को मृत्यु होने पर उसका दाह कर्म ही करना चाहिये जिससे भूमि प्रदुषित होने से बच सके अन्यथा आने वाले समय में कृषि के भूमि शेष नहीं रहेगी।
वैदिक धर्म में गर्भाधान से अन्त्येष्टि पर्यन्त सोलह संस्कार करने का विधान है। इन संस्कारों को करने का कारण व उसकी विधि तथा उसमें जिन वेद मन्त्रों का विनियोग वा विधान है, वह अत्युत्तम व श्रेष्ठ है। अन्य मतों में इसका भी अभाव है। वैदिक धर्म की एक विशेषता यह भी है कि यहां नारी को पुरुष से भी अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मनुस्मृति में लिखा है कि जहां नारियों का सम्मान होता है उस घर व परिवार में देवता अर्थात् श्रेष्ठ मानव निवास करते हैं। अन्य मतों में नारी की ऐसी गौरवपूर्ण स्थिति नहीं है। वैदिक धर्म में सामाजिक व्यवस्था भी श्रेष्ठ है। यह व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित है। देश व समाज में ज्ञान की पूर्ति करने वालों को ब्राह्मण, देश व समाज की रक्षा व न्याय करने वालों को क्षत्रिय, कृषि व वाणिज्य कार्य करने वालों को वैश्य और जो ज्ञान, शारीरिक बल में न्यून तथा उन्नत कृषि व व्यापार आदि नहीं कर सकते उन्हें अन्य तीन वर्णों की सेवा करने के कारण शूद्र व श्रमिक कहा जाता है। वैदिक काल में यह सब परस्पर सौहार्दपूर्वक रहते थे। हमारे शरीर में ज्ञान का स्थान शिर है, बल व कर्म का स्थान हमारे बाहू हैं, कृषि व वाणिज्य कर्म का प्रतीक हमारा उदर है तथा सेवा के प्रतीक हमारे पैर हैं। शरीर में जिस प्रकार सभी अंग आपस में प्रेम व एक विचार होकर रहते हैं, इसी प्रकार समाज में भी सभी वर्णों को संगठित एवं प्रेम पूर्वक रहना चाहिये। मध्यकाल में इस व्यवस्था मे विकार आने से यह अपनी महत्ता खो बैठी। आज भी विश्व, देश व समाज में ज्ञानी को प्रथम स्थान, बलवान व बुद्धिमान को द्वितीय तथा कृषक व्यापारी को तृतीय स्थान प्राप्त है। यह भी वैदिक वर्णव्यवस्था का एक क्रियात्मक व उत्तम रूप ही है।
वैदिक धर्म में एक पत्नी व एक पति का सिद्धान्त है। इसी को आदर्श गृहस्थी माना जाता है और यह है भी। वैदिक धर्म में तलाक जैसी कुप्रथा भी नहीं है। यहां एक बार विवाह हो गया तो उनका सम्बन्ध मृत्यु होने पर ही छूटता है। अन्य मतों के सम्पर्क में आने पर इसमें भी कुछ बुराईयां आ गई हैं। वैदिक धर्म मनुष्य को सत्य पर आधारित सत्याचरण व शुभ कर्म करने की प्रेरणा देता है। वेदों में यज्ञ का भी विधान है जिससे वायु व जल प्रदुषण दूर होने के साथ मनुष्य आजीवन निरोग वा स्वस्थ रहता है। यज्ञ से दूसरे प्राणियों को भी लाभ होता है जिसका पुण्य यज्ञ करने वाले को होता है और इसका सुखद परिणाम ईश्वर से जीव को प्राप्त होता है। अन्य मतों में ऐसे विधान नहीं है।
इन सब श्रेष्ठ विधानों व सिद्धान्तों के होने से वैदिक धर्म सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होता है। हम आह्वान करते हैं कि बुद्धिमान लोगों को वैदिक धर्म की शरण में आकर अपने जन्म व जीवन को श्रेष्ठ बनाना चाहिये। सच्चा वैदिक धर्मी इस जन्म में भी सुख पाता है और मरने के बाद भी उसकी उन्नति होकर उसे मोक्ष प्राप्त होता है। आईये, वेदों का अध्ययन करें तथा पृथिवी के श्रेष्ठ वैदिक धर्म को अपनायें। इसी में मनुष्यमात्र का कल्याण है।