Wed in India – Shadi and Vivah in India विवाह, शादी या पाणिग्रहण
“ॐ सृष्टिकर्ता मम विवाह कुरु कुरु स्वाहा” कन्या ”ॐ श्रीं वर प्रदाय श्री नमः”
विवाह क्या है : शादी या पाणिग्रहण हमारी संस्कृति में सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र घटनाओं में से एक है। शादी का असली मतलब वेद में लिखा गया हैं। हिन्दू शास्त्रों में प्रमुख 16 संस्कारों में विवाह भी है।
यदि कोई मनुष्य संन्यास नहीं लेता है तो प्रत्येक व्यक्ति को विवाह करना जरूरी है। विवाह करने के बाद ही पितृऋण चुकाया जा सकता है। वि + वाह = विवाह अर्थात अत: इसका शाब्दिक अर्थ है- विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। विवाह को पाणिग्रहण कहा जाता है।
हिन्दू विवाह मंत्र :
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Saptpadi / 7 vachan सप्तपदी
फेरे या परिक्रमा लेने के उपरान्त सप्तपदी की जाती है। 4 फेरे क्योंकि वैदिक विधि से जब विवाह संस्कार होता है तब ये सब से आखिरी की प्रक्रिया होती है फेरो के बाद जिसमें 7 वचन लड़की लड़के से लेती है मगर उससे पहले कुछ बाते समझाई जाती है जो की कुछ इस तरह से है
लड़का और लड़की अग्नि को साक्षी मानकर 7 फेरे लेते हैं। इन 7 फेरों को करते समय पंडित 7 वचनों को संस्कृत भाषा में बोलते हैं। आइए जानते हैं विवाह के दौरान लिए जाने वाले 7 फेरों का मतलब और महत्व।
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शादी के पहले फेरे में दुल्हन (लड़की) आगे चलती है जिसमें वो अपने पति को वचन देते हुए कहती है कि
तीर्थव्रतोद्योपन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्याय वामांगमायामि
तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी !!
अर्थ- यदि आप शादी के बाद कोई व्रत-उपवास और किसी धार्मिक स्थान पर जाएं तो आप मुझे भी अपने साथ लेकर जाएं। अगर आप मेरे बातों से सहमत हैं तो मैं आपके साथ जीवन यापन करने के लिए तैयार हूं। —- जीवन में जब भी आप तीर्थ यात्रा, यज्ञ, धर्म कार्य, पूजा अनुष्ठान करेगें तो मुझे हमेशा अपने संग रखेंगे, तो मैं आपके बाएं यानि वामांग आना चाहूंगी।
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शादी के दूसरे फेरे में दुल्हन (लड़की) पति को वचन देते हुए कहती है कि
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!
अर्थ-आप जैसे अपने माता -पिता का सम्मान करते हैं, ठीक वैसे ही आप मेरे माता-पिता का भी सम्मान करेंगे। परिवार की मर्यादा का पालन करेंगे। अगर आप इस बात को स्वीकार करते हैं तो मुझे आपके वामांग में आना स्वीकार है। —– जिस प्रकार मैं अपने माता-पिता का सम्मान करती हूं उसी तरह मैं आपके माता-पिता का सम्मान करूंगी और घर की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान का निर्वाह करूंगी। मेरी ही तरह आप भी मेरे माता-पिता का सम्मान और घर को अपना मानेंगे, तो मैं आपके बाएं यानि वामांग आना चाहूंगी।
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शादी के तीसरे फेरे में दुल्हन (लड़की) पति को वचन देते हुए कहती है कि.
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात,
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!
अर्थ- तीसरे वचन में कन्या अपने वर से कहती हैं कि आप मुझे वचन दीजिए कि जीवन की तीनों अवस्थाओं में मेरे साथ खड़े रहेंगे। मेरे बातों का पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूं। —- मैं जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था) में पालन-पौषण और सहयोग करने का वचन देती हूं अगर आप भी ऐसा वचन देते हैं, तो मैं आपके बाएं यानि वामांग आना चाहूंगी।
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शादी के चौथे फेरे में दूल्हा (लड़का) आगे आता है,
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!
अर्थ- कन्या चौथे वचन में ये मांगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिंता से मुक्त थे। अब जब आप विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं तो आपको अपने परिवार की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाना होगा। अगर आप मेरे बात से सहमत है तो मैं आपके साथ आने के लिए तैयार हूं। इस वचन से यह मालूम होता है कि पुत्र का विवाह तब करे जब वह अपने पैरों पर खड़ा हो। अपने परिवार का खर्चा चलाने लगे। —– शादी के चौथे फेरे में दूल्हा (लड़का) आगे आता है, लेकिन दुल्हन (लड़की) भविष्य में परिवार संबंधी धनार्जन और सभी आवश्यकताओं को पूरा करने वाले दायित्वों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए वचन मांगती है, जिसके बाद पति के बाएं अंग यानि वामांग आने की अनुमति मांगती है।
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स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!
अर्थ- इस वचन में कन्या अपने वर से कहती हैं कि अगर आप घर परिवार के लेन देन में मेरी भी राय हो तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं। ———- शादी के पांचवें फेरे में दूल्हा (लड़का) से दुल्हन (लड़की) अपने अधिकारों के बारे में बताते हुए कहती है कि अपने घर-परिवार के कार्यों में, लेन-देन अथवा अन्य किसी खर्च के लिए आप मेरी सलाह लेने और उसे अहमियत भी देने का वचन देते हैं, तो मैं आपके बाएं यानि वामांग आना चाहूंगी।
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न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत,
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम !!
अर्थ- कन्या कहती है यदि मैं अपनी सखियों के साथ बैठकर कुछ समय बीता रही हूं तो उस समय आप किसी प्रकार का अपमान नहीं करेंगे। साथ ही आपको जुआ के लत से खुद को दूर रखना होगा। अगर आप हमारी बातों को मानते हैं तो मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूं। ——————-शादी के छठें फेरे में दूल्हे (लड़का) से दुल्हन (लड़की) अपनी सहेलियों या अन्य लोगों के बीच बैठने यानि सामाजिक रूप से आप मेरा कभी भी अपमान नहीं करेंगे। इसके साथ ही जुआ या किसी अन्य बुरी आदतों से खुद को दूर रखने का वचन देते हैं, तो मैं आपके बाएं यानि वामांग आना चाहूंगी।
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परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!
अर्थ-अंतिम वचन में कन्या कहती हैं कि आप पराई औरतों को माता और बहन के सामान समझेंगे तथा पति-पत्नी के प्रेम के बीच में तीसरे किसी भी व्यक्ति को जगह नहीं देंगे। ————— शादी के आखिरी फेरे यानि सातवें वचन में दूल्हे (लड़का) से दुल्हन (लड़की) कहती है कि आप लिए हर पराई स्त्री को माता समान समझेंगे और पति-पत्नी के संबंध में किसी को बीच में आने नहीं देगें, ये वचन देते हैं, तो मैं आपके बाएं यानि वामांग आना चाहूंगी।
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कन्या के इन सात वचनों के उत्तर में वर कहता है
तुम अपने चित्त को मेरे चित्त के अनूकूल कर लो , मेरे कहे अनुसार चलना और मेरे धन को भोगना पतिव्रता बन कर रहना तो मैं भी तुम्हारे सारे वचन निभाऊंगा तुम गृह स्वामिनी बन कर सारे सुख भोगना ।
वर एक बार फिर कन्या से पांच वचन लेता है जिसमें वो कन्या से बोलता है वो कहीं भी जाएगी बेशक मायके ही वर से पूछ कर जाएगी ओर जो भी खाएंगी पिएगी सब उससे पूछ कर करेगी इसी बात पांच बातो मै बाट कर बोला जाता है जैसे खाएंगी तो उससे पूछ कर ,ओर अंत मै बोलता है की वो सदा पतिव्रता बन कर रहेगी ।
इन सब के बाद वर को ध्रुव तारा ,ओर कन्या को अरुंधती तारा दिखाया जाता ओर उनकी तरह स्थिर रहने के लिए बोला जाता है।
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1. इहेमाविन्द्र सं नुद चक्रवाकेव दम्पती। प्रजयौनौ स्वस्तकौ विस्वमायुर्व्यऽशनुताम् ॥
अर्थ – हे भगवान इंद्र ! आप इस नवविवाहित जोड़े को इस तरह साथ लाये जैसे चक्रवका पक्षियों की जोड़ी रहती है, वे वैवाहिक जीवन का आनंद लें, और ये संतान की प्राप्ति के साथ – साथ एक पूर्ण जीवन जिए।
2. धर्मेच अर्थेच कामेच इमां नातिचरामि।धर्मेच अर्थेच कामेच इमं नातिचरामि॥
अर्थ – में अपने कर्तव्य में, अपने धन संबंधी मामलो में, अपनी जरूरतों में, मैं हर बात पर जीवन साथी से सलाह लूंगा ।
3. गृभ्णामि ते सुप्रजास्त्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः।भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यांत्वादुःगार्हपत्याय देवाः ॥
अर्थ – मैं तुम्हारा हाथ पकडे रखूंगा ताकि हम योग्य बच्चों के माँ-बाप बन सके और हम कभी अलग न हो। मैं इंद्र, वरुण और सवितृ देवताओं से एक अच्छे ग्रहस्थ जीवन का आशीर्वाद मांगता हूं।
4. सखा सप्तपदा भव।सखायौ सप्तपदा बभूव। सख्यं ते गमेयम्। सख्यात् ते मायोषम्। सख्यान्मे मयोष्ठाः
अर्थ – तुम मेरे साथ सात कदम चल चुके हो, अब हम दोस्त बन गए हैं।
5. धैरहं पृथिवीत्वम्। रेतोऽहं रेतोभृत्त्वम्। मनोऽहमस्मि वाक्त्वम्। सामाहमस्मि ऋकृत्वम्। सा मां अनुव्रता भव
अर्थ – मैं आकाश हूँ और तुम पृथ्वी हों । मैं ऊर्जा देता हूँ और तुम ऊर्जा लो। मैं मन हूँ और तुम शब्द हो। मैं संगीत हूँ और तुम गीत हो। तुम और मैं एक दूसरे का पालन करें।
6. चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अभ्यञ्जनम् ।ध्यौर्भूमिः कोश आसीद्यदयात्सूर्या पतिम् ॥
अर्थ – इस मंत्र का मतलब है जब सोमा सूर्या को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेता हैं।
7. गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्थासः। भगो अर्यमा सविता पुरंधिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः ॥
अर्थ – इस मंत्र में सोमा सूर्या को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करते हुए लम्बे जीवन की कामना करता हैं।
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शादी में सात नहीं चार फेरे ही हैं काफी, जानिए क्यों
शादी में जो फेरे लिए जाते हैं वह 7 नहीं बल्कि 4 होते हैं. धर्म, अर्थ काम और मोक्ष. अधिकतर शादियों में सात फेरे होते हैं लेकिन सनातन धर्म पद्धति के अनुसार 4 फेरे लेकर शादी पूर्ण मानी जाती है. चार फेरे के बाद वर-वधू को अग्नि के सामने बिठा दिया जाता है. उसके बाद तीन फेरे और लिए जाते हैं.
सात फेरे इसलिए लिए जाते हैं कि अग्नि की साथ जीवा हैं और यही वजह है कि अग्नि के साथ फेरे लिए जाते हैं. लेकिन शादी चार फेरे में ही पूरी मानी जाती है. हालांकि अलग-अलग देवताओं का अलग-अलग विधान है और निश्चित है कि किसकी कितनी परिक्रमा लगानी चाहिए, जैसे सूर्य भगवान की हम बात करें तो उनकी 1 फेरे भी लगाते हैं और सात फेरे भी लगाते हैं क्योंकि सूर्य भगवान के 7 घोड़े हैं.
इसी प्रकार गणेश भगवान की तीन परिक्रमा लगाते हैं. शिवजी की आधी परिक्रमा लगाते हैं, इसी प्रकार से विष्णु भगवान के 4, Durga ki 1, Sury ki 7 परिक्रमा लगाते हैं. इन चार फेरों में 3 फेरों में कन्या आगे रहती है और चौथे में वर आगे रहता है. जब वर-वधू की शादी होती है तो वह लक्ष्मी और विष्णु के रूप में होते हैं. इसीलिए विष्णु भगवान के 4 परिक्रमा ही लगती है और 4 फेरे में ही शादी सफल मानी जाती है. लेकिन अग्नि वहां पर मौजूद रहती है तो 3 फेरे उनके भी लगती हैं तो टोटल 7 फेरे से हो जाते हैं, जिसे परिक्रमा कहते हैं ना कि फिर फेरे. फेरे चार ही होते हैं और चार फेरे में शादी सफल मानी जाती है. तो हम कह सकते हैं कि परिक्रमा सात होते हैं लेकिन फेरे चार ही होते हैं. सनातन धर्म पद्धति के अनुसार 4 फेरे में ही विवाह पूर्ण हो जाता है.
सप्तपदी Veiw more
दिशा और प्रेरणा भाँवरें फिर लेने के उपरान्त सप्तपदी की जाती है। सात बार वर-वधू साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर फौजी सैनिकों की तरह आगे बढ़ते हैं। सात चावल की ढेरी या कलावा बँधे हुए सकोरे रख दिये जाते हैं, इन लक्ष्य-चिह्नों को पैर लगाते हुए दोनों एक-एक कदम आगे बढ़ते हैं, रुक जाते हैं और फिर अगला कदम बढ़ाते हैं। इस प्रकार सात कदम बढ़ाये जाते हैं। प्रत्येक कदम के साथ एक-एक मन्त्र बोला जाता है।
पहला कदम अन्न के लिए, दूसरा बल के लिए, तीसरा धन के लिए, चौथा सुख के लिए, पाँचवाँ परिवार के लिए, छठवाँ ऋतुचर्या के लिए और सातवाँ मित्रता के लिए उठाया जाता है। विवाह होने के उपरान्त पति-पतनी को मिलकर सात कायर्क्रम अपनाने पड़ते हैं। उनमें दोनों का उचित और न्याय संगत योगदान रहे, इसकी रूपरेखा सप्तपदी में निर्धारित की गयी है।
प्रथम कदम अन्न वृद्धि के लिए है। आहार स्वास्थ्यवर्धक हो, घर में चटोरेपन को कोई स्थान न मिले। रसोई में जो बने, वह ऐसा हो कि स्वास्थ्य रक्षा का प्रयोजन पूरा करे, भले ही वह स्वादिष्ट न हो। अन्न का उत्पादन, अन्न की रक्षा, अन्न का सदुपयोग जो कर सकता है, वही सफल गृहस्थ है। अधिक पका लेना, जूठन छोड़ना, बरतन खुले रखकर अन्न की चूहों से बर्बादी कराना, मिर्च-मसालों की भरमार उसे तमोगुणी बना देना, स्वच्छता का ध्यान न रखना, आदि बातों से आहार पर बहुत खर्च करते हुए भी स्वास्थ्य नष्ट होता है, इसलिए दाम्पत्य जीवन का उत्तरदायित्व यह है कि आहार की सात्त्विकता का समुचित ध्यान रखा जाए।
दूसरा कदम शारीरिक और मानसिक बल की वृद्धि के लिए है। व्यायाम, परिश्रम, उचित एवं नियमित आहार-विहार से शरीर का बल स्थिर रहता है। अध्ययन एवं विचार-विमर्श से मनोबल बढ़ता है। जिन प्रयत्नों से दोनों प्रकार के बल बढें, दोनों अधिक समर्थ, स्वस्थ एवं सशक्त बनें-उसका उपाय सोचते रहना चाहिए।
तीसरा कदम धन की वृद्धि के लिए है। अर्थ व्यवस्था बजट बनाकर चलाई जाए। अपव्यय में कानी कौड़ी भी नष्ट न होने पाए। उचित कार्यों में कंजूसी न की जाए- फैशन, व्यसन, शेखीखोरी आदि के लिए पैसा खर्च न करके उसे पारिवारिक उन्नति के लिए सँभालकर, बचाकर रखा जाए। उपार्जन के लिए पति-पत्नी दोनों ही प्रयत्न करें। पुरुष बाहर जाकर कृषि, व्यवसाय, नौकरी आदि करते हैं, तो स्त्रियाँ सिलाई, धुलाई, सफाई आदि करके इस तरह की कमाई करती हैं। उपार्जन पर जितना ध्यान रखा जाता है, खर्च की मर्यादाओं का भी वैसा ही ध्यान रखते हुए घर की अर्थव्यवस्था सँभाले रहना दाम्पत्य जीवन का अनिवार्य कर्तव्य है।
चौथा कदम सुख की वृद्धि के लिए है। विश्राम, मनोरंजन, विनोद, हास-परिहास का ऐसा वातावरण रखा जाए कि गरीबी में भी अमीरी का आनन्द मिले। दोनों प्रसन्नचित्त रहें। मुस्कराने की आदत डालें, हँसते-हँसाते जिन्दगी काटें। चित्त को हलका रखें, ‘सन्तोषी सदा सुखी’ की नीति अपनाएँ।
पाँचवाँ कदम परिवार पालन का है। छोटे बड़े सभी के साथ समुचित व्यवहार रखा जाए। आश्रित पशुओं एवं नौकरों को भी परिवार माना जाए, इस सभी आश्रितों की समुचित देखभाल, सुरक्षा, उन्नति एवं सुख-शान्ति के लिए सदा सोचने और करने में लापरवाही न बरती जाए।
छठा कदम ऋतुचर्या का है। सन्तानोत्पादन एक स्वाभाविक वृत्ति है, इसलिए दाम्पत्य जीवन में उसका भी एक स्थान है, पर उस सम्बन्ध में मर्यादाओं का पूरी कठोरता एवं सतर्कता से पालन किया जाए, क्योंकि असंयम के कारण दोनों के स्वास्थ्य का सर्वनाश होने की आशंका रहती है, गृहस्थ में रहकर भी ब्रह्मचर्य का समुचित पालन किया जाए। दोनों एक दूसरे का भी सहयोगी मित्र की दृष्टि से देखें, कामुकता के सर्वनाशी प्रसंगों को जितना सम्भव हो, दूर रखा जाए। सन्तान उत्पन्न करने से पूर्व हजार बार विचार करें कि अपनी स्थिति सन्तान को सुसंस्कृत बनाने योग्य है या नहीं। उस मर्यादा में सन्तान उत्पन्न करने की जिम्मेदारी वहन करें।
सातवाँ कदम मित्रता को स्थिर रखने एवं बढ़ाने के लिए है। दोनों इस बात पर बारीकी से विचार करते रहें कि उनकी ओर से कोई त्रुटि तो नहीं बरती जा रही है, जिसके कारण साथी को रुष्ट या असंतुष्ट होने का अवसर आए। दूसरा पक्ष कुछ भूल भी कर रहा हो, तो उसका उत्तर कठोरता, कर्कशता से नहीं, वरन् सज्जनता, सहृदयता के साथ दिया जाना चाहिए, ताकि उस महानता से दबकर साथी को स्वतः ही सुधरने की अन्तःप्रेरणा मिले। बाहर के लोगों के साथ, दुष्टों के साथ दुष्टता की नीति किसी हद तक अपनाई जा सकती है, पर आत्मीयजनों का हृदय जीतने के लिए उदारता, सेवा, सौजन्य, क्षमा जैसे शस्त्र की काम में लाये जाने चाहिए।
सप्तपदी में सात कदम बढ़ाते हुए इन सात सूत्रों को हृदयंगम करना पड़ता है। इन आदर्शों और सिद्धान्तों को यदि पति-पत्नी द्वारा अपना लिया जाए और उसी मार्ग पर चलने के लिए कदम से कदम बढ़ाते हुए अग्रसर होने की ठान ली जाए, तो दाम्पत्य जीवन की सफलता में कोई सन्देह ही नहीं रह जाता।
क्रिया और भावना वर-वधू खड़े हों। प्रत्येक कदम बढ़ाने से पहले देव शक्तियों की साक्षी का मन्त्र बोला जाता है, उस समय वर-वधू हाथ जोड़कर ध्यान करें। उसके बाद चरण बढ़ाने का मन्त्र बोलने पर पहले दायाँ कदम बढ़ाएँ। इसी प्रकार एक-एक करके सात कदम बढ़ाये जाएँ। भावना की जाए कि योजनाबद्ध-प्रगतिशील जीवन के लिए देव साक्षी में संकल्पित हो रहे हैं, संकल्प और देव अनुग्रह का संयुक्त लाभ जीवन भर मिलता रहेगा।
(१) अन्न वृद्धि के लिए पहली साक्षी- ॐ एको विष्णुजर्गत्सवर्ं, व्याप्तं येन चराचरम्। हृदये यस्ततो यस्य, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥ पहला चरण- ॐ इष एकपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥१॥
(२) बल वृद्धि के लिए दूसरी साक्षी- ॐ जीवात्मा परमात्मा च, पृथ्वी आकाशमेव च। सूयर्चन्द्रद्वयोमर्ध्ये, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥२॥ दूसरी चरण- ॐ ऊजेर् द्विपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥२॥
(३) धन वृद्धि के लिए तीसरी साक्षी- ॐ त्रिगुणाश्च त्रिदेवाश्च, त्रिशक्तिः सत्परायणाः। लोकत्रये त्रिसन्ध्यायाः, तस्य साक्षी प्रदीयताम्। तीसरा चरण- ॐ रायस्पोषाय त्रिपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥३॥
(४) सुख वृद्धि के लिए चौथी साक्षी- ॐ चतुमर्ुखस्ततो ब्रह्मा, चत्वारो वेदसंभवाः। चतुयुर्गाः प्रवतर्न्ते, तेषां साक्षी प्रदीयताम्। चौथा चरण- ॐ मायो भवाय चतुष्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥४॥
(५) प्रजा पालन के लिए पाँचवी साक्षी- ॐ पंचमे पंचभूतानां, पंचप्राणैः परायणाः। तत्र दशर्नपुण्यानां, साक्षिणः प्राणपंचधाः॥ पाँचवाँ चरण- ॐ प्रजाभ्यां पंचपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥५॥
(६) ऋतु व्यवहार के लिए छठवीं साक्षी- ॐ षष्ठे तु षड्ऋतूणां च, षण्मुखः स्वामिकातिर्कः। षड्रसा यत्र जायन्ते, कातिर्केयाश्च साक्षिणः॥ छठवाँ चरण- ॐ ऋतुभ्यः षट्ष्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥६॥
(७) मित्रता वृद्धि के लिए सातवीं साक्षी- ॐ सप्तमे सागराश्चैव, सप्तद्वीपाः सपवर्ताः। येषां सप्तषिर्पतनीनां, तेषामादशर्साक्षिणः॥ सातवाँ चरण- ॐ सखे सप्तपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥७॥ -पार०गृ०सू० १.८.१-२, आ०गृ०सू० १.७.१९
वर-वधू की प्रतिज्ञाएँ
- दिशा और प्रेरणा
किसी भी महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण के साथ शपथ ग्रहण समारोह भी अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। कन्यादान, पाणिग्रहण एवं ग्रन्थि-बन्धन हो जाने के साथ वर-वधू द्वारा और समाज द्वारा दाम्पत्य सूत्र में बँधने की स्वीकारोक्ति हो जाती है। इसके बाद अग्नि एवं देव-शक्तियों की साक्षी में दोनों को एक संयुक्त इकाई के रूप में ढालने का क्रम चलता है। इस बीच उन्हें अपने कर्त्तव्य धर्म का महत्त्व भली प्रकार समझना और उसके पालन का संकल्प लेना चाहिए। इस दिशा में पहली जिम्मेदारी वर की होती है। अस्तु, पहले वर तथा बाद में वधू को प्रतिज्ञाएँ कराई जाती हैं।
- क्रिया और भावना-
वर-वधू स्वयं प्रतिज्ञाएँ पढ़ें, यदि सम्भव न हो, तो आचार्य एक-एक करके प्रतिज्ञाएँ व्याख्या सहित समझाएँ।
- वर की प्रतिज्ञाएँ
धमर्पत्नीं मिलित्वैव, ह्येकं जीवनामावयोः। अद्यारम्भ यतो में त्वम्, अर्द्धांगिनीति घोषिता ॥१॥ आज से धमर्पत्नी को अर्द्धांगिनी घोषित करते हुए, उसके साथ अपने व्यक्तित्व को मिलाकर एक नये जीवन की सृष्टि करता हूँ। अपने शरीर के अंगों की तरह धमर्पतनी का ध्यान रखूँगा।
स्वीकरोमि सुखेन त्वां, गृहलक्ष्मीमहन्ततः। मन्त्रयित्वा विधास्यामि, सुकायार्णि त्वया सह॥२॥ प्रसन्नतापूर्वक गृहलक्ष्मी का महान अधिकार सौंपता हूँ और जीवन के निर्धारण में उनके परामर्श को महत्त्व दूँगा।
रूप-स्वास्थ्य-स्वभावान्तु, गुणदोषादीन् सवर्तः। रोगाज्ञान-विकारांश्च, तव विस्मृत्य चेतसः॥३॥ रूप, स्वास्थ्य, स्वभावगत गुण दोष एवं अज्ञानजनित विकारों को चित्त में नहीं रखूँगा, उनके कारण असन्तोष व्यक्त नहीं करूँगा। स्नेहपूर्वक सुधारने या सहन करते हुए आत्मीयता बनाये रखूँगा।
सहचरो भविष्यामि, पूणर्स्नेहः प्रदास्यते। सत्यता मम निष्ठा च, यस्याधारं भविष्यति॥४॥ पत्नी का मित्र बनकर रहूँगा और पूरा-पूरा स्नेह देता रहूँगा। इस वचन का पालन पूरी निष्ठा और सत्य के आधार पर करूँगा।
यथा पवित्रचित्तेन, पातिव्रत्य त्वया धृतम्। तथैव पालयिष्यामि, पतनीव्रतमहं ध्रुवम्॥५॥ पत्नी के लिए जिस प्रकार पतिव्रत की मर्यादा कही गयी है, उसी दृढ़ता से स्वयं पत्नीव्रत धर्म का पालन करूँगा। चिन्तन और आचरण दोनों से ही पर नारी से वासनात्मक सम्बन्ध नहीं जोडूँगा।
गृहस्याथर्व्यवस्थायां, मन्त्रयित्वा त्वया सह। संचालनं करिष्यामि, गृहस्थोचित-जीवनम्॥६॥ गृह व्यवस्था में धर्म-पत्नी को प्रधानता दूँगा। आमदनी और खर्च का क्रम उसकी सहमति से करने की गृहस्थोचित जीवनचर्या अपनाऊँगा।
समृद्धि-सुख-शान्तीनां, रक्षणाय तथा तव। व्यवस्थां वै करिष्यामि, स्वशक्तिवैभवादिभि॥७॥ धमर्पत्नी की सुख-शान्ति तथा प्रगति-सुरक्षा की व्यवस्था करने में अपनी शक्ति और साधन आदि को पूरी ईमानदारी से लगाता रहूँगा।
यतनशीलो भविष्यामि, सन्मागर्ंसेवितुं सदा। आवयोः मतभेदांश्च, दोषान्संशोध्य शान्तितः॥८॥ अपनी ओर से मधुर भाषण और श्रेष्ठ व्यवहार बनाये रखने का पूरा-पूरा प्रयत्न करूँगा। मतभेदों और भूलों का सुधार शान्ति के साथ करूँगा। किसी के सामने पत्नी को लांछित-तिरस्कृत नहीं करूँगा।
भवत्यामसमथार्यां, विमुखायांच कमर्णि। विश्वासं सहयोगंच, मम प्राप्स्यसि त्वं सदा॥९॥ पत्नी के असमर्थ या अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाने पर भी अपने सहयोग और कर्त्तव्य पालन में रत्ती भर भी कमी न रखूँगा।
- कन्या की प्रतिज्ञाएँ
स्वजीवनं मेलयित्वा, भवतः खलु जीवने। भूत्वा चाधार्ंगिनी नित्यं, निवत्स्यामि गृहे सदा॥१॥ अपने जीवन को पति के साथ संयुक्त करके नये जीवन की सृष्टि करूँगी। इस प्रकार घर में हमेशा सच्चे अर्थों में अर्द्धांगिनी बनकर रहूँगी।
शिष्टतापूवर्कं सवैर्ः, परिवारजनैः सह। औदायेर्ण विधास्यामि, व्यवहारं च कोमलम्॥२॥ पति के परिवार के परिजनों को एक ही शरीर के अंग मानकर सभी के साथ शिष्टता बरतूँगी, उदारतापूर्वक सेवा करूँगी, मधुर व्यवहार करूँगी।
त्यक्त्वालस्यं करिष्यामि, गृहकायेर् परिश्रमम्। भतुर्हर्षर्ं हि ज्ञास्यामि, स्वीयामेव प्रसन्नताम्॥३॥ आलस्य को छोड़कर परिश्रमपूर्वक गृह कार्य करूँगी। इस प्रकार पति की प्रगति और जीवन विकास में समुचित योगदान करूँगी।
श्रद्धया पालयिष्यामि, धमर्ं पातिव्रतं परम्। सवर्दैवानुकूल्येन, पत्युरादेशपालिका॥४॥ पतिव्रत धर्म का पालन करूँगी, पति के प्रति श्रद्धा-भाव बनाये रखकर सदैव उनके अनुकूल रहूँगी। कपट-दुराव न करूँगी, निर्देशों के अविलम्ब पालन का अभ्यास करूँगी।
सुश्रूषणपरा स्वच्छा, मधुर-प्रियभाषिणी। प्रतिजाने भविष्यामि, सततं सुखदायिनी॥५॥ सेवा, स्वच्छता तथा प्रियभाषण का अभ्यास बनाये रखूँगी। ईर्ष्या, कुढ़न आदि दोषों से बचूँगी और सदा प्रसन्नता देने वाली बनकर रहूँगी।
मितव्ययेन गाहर्स्थ्य-संचालने हि नित्यदा। प्रयतिष्ये च सोत्साहं, तवाहमनुगामिनी॥६॥ मितव्ययी बनकर फिजूलखर्ची से बचूँगी। पति के असमर्थ हो जाने पर भी गृहस्थ के अनुशासन का पालन करूँगी।
देवस्वरूपो नारीणां, भत्तार् भवति मानवः। मत्वेति त्वां भजिष्यामि, नियता जीवनावधिम्॥७॥ नारी के लिए पति, देव स्वरूप होता है- यह मानकर मतभेद भुलाकर, सेवा करते हुए जीवन भर सक्रिय रहूँगी, कभी भी पति का अपमान न करूँगी।
पूज्यास्तव पितरो ये, श्रद्धया परमा हि मे। सेवया तोषयिष्यामि, तान्सदा विनयेन च॥८॥ जो पति के पूज्य और श्रद्धा पात्र हैं, उन्हें सेवा द्वारा और विनय द्वारा सदैव सन्तुष्ट रखूँगी।
विकासाय सुसंस्कारैः, सूत्रैः सद्भाववद्धिर्भिः। परिवारसदस्यानां, कौशलं विकसाम्यहम्॥९॥ परिवार के सदस्यों में सुसंस्कारों के विकास तथा उन्हें सद्भावना के सूत्रों में बाँधे रहने का कौशल अपने अन्दर विकसित करूँगी।
शिलारोहण
- दिशा एवं प्रेरणा
शिलारोहण के द्वारा पत्थर पर पैर रखते हुए प्रतिज्ञा करते हैं कि जिस प्रकार अंगद ने अपना पैर जमा दिया था, उसी तरह हम पत्थर की लकीर की तरह अपना पैर उत्तरदायित्वों को निबाहने के लिए जमाते हैं। यह धर्मकृत्य खेल-खिलौने की तरह नहीं किया जा रहा, जिसे एक मखौल समझकर तोड़ा जाता रहे, वरन् यह प्रतिज्ञाएँ पत्थर की लकीर की तरह अमिट बनी रहेंगी, ये चट्टान की तरह अटूट एवं चिरस्थायी रखी जायेंगी।
- क्रिया और भावना
मन्त्र बोलने के साथ वर-वधू अपने दाहिने पैर को शिला पर रखें, भावना करें कि उत्तरदायित्वों के निर्वाह करने तथा बाधाओं को पार करने की शक्ति हमारे संकल्प और देव अनुग्रह से मिल रही है। ॐ आरोहेममश्मानम् अश्मेव त्वं स्थिरा भव। अभितिष्ठ पृतन्यतोऽ, वबाधस्व पृतनायतः॥ पार०गृ०सू० १.७.१
लाजाहोम एवं परिक्रमा (भाँवर)
प्रायश्चित आहुति के बाद लाजाहोम और यज्ञाग्नि की परिक्रमा (भाँवर) का मिला-जुला क्रम चलता है। लाजाहोम के लिए कन्या का भाई एक थाली में खील (भुना हुआ धान) लेकर पीछे खड़ा हो। एक मुट्ठी खील अपनी बहिन को दे। कन्या उसे वर को सौंप दे। वर उसे आहुति मन्त्र के साथ हवन कर दे। इस प्रकार तीन बार किया जाए। कन्या तीनों बार भाई के द्वारा दिये हुए खील को अपने पति को दे, वह तीनों बार हवन में अपर्ण कर दे। लाजाहोम में भाई के घर से अन्न (खील के रूप में) बहिन को मिलता है, उसे वह अपने पति को सौंप देती है। कहती है बेशक मेरे व्यक्तिगत उपयोग के लिए पिता के घर से मुझे कुछ मिला है, पर उसे मैं छिपाकर अलग से नहीं रखती, आपको सौंपती हूँ।अलगाव या छिपाव का भाव कोई मन में न आए, इसलिए जिस प्रकार पति कुछ कमाई करता है, तो पत्नी को सौंपता है, उसी प्रकार पत्नी भी अपनी उपलब्धियों को पति के हाथ में सौंपती है। पति सोचता है, हम लोग हाथ-पैर से जो कमायेंगे, उसी से अपना काम चलायेंगे, किसी के उदारतापूर्वक दिये हुए अनुदान को बिना श्रम किये खाकर क्यों हम किसी के ऋणी बनें। इसलिए पति उस लाजा को अपने खाने के लिए नहीं रख लेता, वरन् यज्ञ में होम देता है। जन कल्याण के लिए उस पदार्थ को वायुभूत बनाकर संसार के वायुमण्डल में बिखेर देता है। इस क्रिया में यहाँ महान मानवीय आदर्श सन्निहित है कि मुफ्त का माल या तो स्वीकार ही न किया जाय या मिले भी तो उसे लोकहित में खर्च कर दिया जाए। लोग अपनी-अपनी निज की पसीने की कमाई पर ही गुजर-बसर करें। मृतक भोज के पीछे भी यही आदर्शवादिता थी कि पिता के द्वारा उत्तराधिकार में मिले हुए धन को लड़के अपने काम में नहीं लेते थे, वरन् समाजसेवी ब्राह्मणों के निर्वाह में या अन्य पुण्यकार्यों में खर्च कर डालते थे। यही दहेज के सम्बन्ध में भी ठीक है। पिता के गृह से उदारतापूवर्क मिला, सो उनकी भावना सराहनीय है, पर आपकी भी तो कुछ भावना होनी चाहिए। मुफ्त का माल खाते हुए किसी कमाऊ मनुष्य का गैरत आना स्वाभाविक है। उसका यह सोचना ठीक ही है कि बिना परिश्रम का धन, वह भी दान की उदार भावना से दिया हुआ उसे पचेगा नहीं, इसलिए उपहार को जन मंगल के कार्य में, परमार्थ यज्ञ में आहुति कर देना ही उचित है। इसी उद्देश्य से पत्नी के भाई के द्वारा दिये गये लाजा को वह यज्ञ कार्य में लगा देता है। दहेज का ठीक उपयोग यही है, प्रथा भी है कि विवाह के अवसर पर वर पक्ष की ओर से बहुत सा दान-पुण्य किया जाता है। अच्छा हो जो कुछ मिले, वह सबको ही दान कर दे। विवाह के समय ही नहीं, अन्य अवसरों पर भी यदि कभी किसी से कुछ ऐसा ही बिना परिश्रम का उपहार मिले, तो उसके सम्बन्ध में एक नीति रहनी चाहिए कि मुफ्त का माल खाकर हम परलोक के ऋणी न बनेंगे, वरन् ऐसे अनुदान को परमार्थ में लगाकर उस उदार परम्परा को अपने में न रोककर आगे जन कल्याण के लिए बढ़ा देंगे। कहाँ भारतीय संस्कृति की उदार भावना और कहाँ आज के धन लोलुपों द्वारा कन्या पक्ष की आँतें नोच डालने वाली दहेज की पैशाचिक माँगें, दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। जिसने अपने हृदय का, आत्मा का टुकड़ा कन्या दे दी, उनके प्रति वर पक्ष का रोम-रोम कृतज्ञ होना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि इस अलौकिक उपहार के बदले में किस प्रकार अपनी श्रद्धा-सद्भावना व्यक्त करें। यह न होकर उल्टे जब कन्या पक्ष को दबा हुआ समझ कर उसे तरह-तरह से सताने और चूसने की योजना बनाई जाती है, तो यही समझना चाहिए कि भारतीय परम्पराएँ बिल्कुल उल्टी हो गयीं। धर्म के स्थान पर अधर्म, देवत्व के स्थान पर असुरता का साम्राज्य छा गया। लाजाहोम वर्तमान काल की क्षुद्र मान्यताओं को धिक्कारता है और दहेज के सम्बन्ध में सही दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा देता है।
- परिक्रमा
अग्नि की पति-पतनी परिक्रमा करें। बायें से दायें की ओर चलें। पहली चार परिक्रमाओं में कन्या आगे रहे और वर पीछे। चार परिक्रमा हो जाने पर लड़का आगे हो जाए और लड़की पीछे। परिक्रमा के समय परिक्रमा मन्त्र बोला जाए तथा हर परिक्रमा पूरी होने पर एक-एक आहुति वर-वधू गायत्री मन्त्र से करते चलें, इसका तात्पर्य है- घर-परिवार के कार्यों में लड़की का नेतृत्व रहेगा, उसके परामर्श को महत्त्व दिया जाएगा, वर उसका अनुसरण करेगा, क्योंकि उन कामों का नारी को अनुभव अधिक होता है। बाहर के कार्यों में वर नेतृत्व करता है और नारी उसका अनुसरण करती है, क्योंकि व्यावसायिक क्षेत्रों में वर का अनुभव अधिक होता है। जिसमें जिस दिशा की जानकारी कम हो, दूसरे में उसकी जानकारी बढ़ाकर अपने समतुल्य बनाने में प्रयत्नशील रहें। भावना क्षेत्र में नारी आगे हैं, कर्म क्षेत्र में पुरुष। दोनों पक्ष अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं। कुल मिलाकर नारी का वर्चस्व, पद, गौरव एवं वजन बड़ा बैठता है। इसलिए उसे चार परिक्रमा करने और नर को तीन परिक्रमा करने का अवसर दिया जाता है। गौरव के चुनाव के ४ वोट कन्या को और ३ वोट वर को मिलते हैं। इसलिए सदा नर से पहला स्थान नारी को मिला है। सीताराम, राधेश्याम, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश आदि युग्मों में पहले नारी का नाम है, पीछे नर का।
- क्रिया और भावना
लाजा होम और परिक्रमा का मिला-जुला क्रम चलता है। शिलारोहण के बाद वर-वधू खड़े-खड़े गायत्री मन्त्र से एक आहुति समर्पित करें। अब मन्त्र के साथ परिक्रमा करें। वधू आगे, वर पीछे चलें। एक परिक्रमा पूरी होने पर लाजाहोम की एक आहुति करें। आहुति करके दूसरी परिक्रमा पहले की तरह मन्त्र बोलते हुए करें। इसी प्रकार लाजाहोम की दूसरी आहुति करके तीसरी परिक्रमा तथा तीसरी आहुति करके चौथी परिक्रमा करें। इसके बाद गायत्री मन्त्र की आहुति देते हुए तीन परिक्रमाएँ वर को आगे करके परिक्रमा मन्त्र बोलते हुए कराई जाएँ। आहुति के साथ भावना करें कि बाहर यज्ञीय ऊर्जा तथा अंतःकरण में यज्ञीय भावना तीव्रतर हो रही है। परिक्रमा के साथ भावना करें कि यज्ञीय अनुशासन को केन्द्र मानकर, यज्ञाग्नि को साक्षी करके आदर्श दाम्पत्य के निर्वाह का संकल्प कर रहे हैं।
- लाजाहोम
ॐ अयर्मणं देवं कन्या अग्निमयक्षत। स नोऽअयर्मा देवः प्रेतो मुंचतु, मा पतेः स्वाहा। इदम् अयर्म्णे अग्नये इदं न मम॥ ॐ इयं नायुर्पब्रूते लाजा नावपन्तिका। आयुष्मानस्तु में पतिरेधन्तां, ज्ञातयो मम स्वाहा। इदम् अग्नये इदं न मम॥ ॐ इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ, समृद्धिकरणं तव। मम तुभ्यं च संवननं, तदग्निरनुमन्यतामिय स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम॥ -पार०गृ०सू० १.६.२ ॥ परिक्रमा मन्त्र॥ ॐ तुभ्यमग्ने पयर्वहन्त्सूयार्ं वहतु ना सह। पुनः पतिभ्यो जायां दा, अग्ने प्रजया सह॥ -ऋ०१०.८५.३८, पार०गृ०सू० १.७.३
विवाह के प्रकार
- 1. ब्रह्म विवाह
दोनों पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या का विवाह निश्चित कर देना ‘ब्रह्म विवाह’ कहलाता है। सामान्यतः इस विवाह के बाद कन्या को आभूषणयुक्त करके विदा किया जाता है। आज का “व्यवस्था विवाह” ‘ब्रह्म विवाह’ का ही रूप है।
- 2. दैव विवाह
किसी सेवा कार्य (विशेषतः धार्मिक अनुष्ठान) के मूल्य के रूप अपनी कन्या को दान में दे देना ‘दैव विवाह’ कहलाता है।
- 3. आर्ष विवाह
कन्या-पक्ष वालों को कन्या का मूल्य दे कर (सामान्यतः गोदान करके) कन्या से विवाह कर लेना ‘आर्ष विवाह’ कहलाता है।
- 4. प्रजापत्य विवाह
कन्या की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग के वर से कर देना ‘प्रजापत्य विवाह’ कहलाता है।
- 5. गंधर्व विवाह
परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना ‘गंधर्व विवाह’ कहलाता है। दुष्यंत ने शकुन्तला से ‘गंधर्व विवाह’ किया था। उनके पुत्र भरत के नाम से ही हमारे देश का नाम “भारतवर्ष” बना।
- 6. असुर विवाह
कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से) विवाह कर लेना ‘असुर विवाह’ कहलाता है।
- 7. राक्षस विवाह
कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना ‘राक्षस विवाह’ कहलाता है।
- 8. पैशाच विवाह
कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना और उससे विवाह करना ‘पैशाच विवाह’ कहलाता है।