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Marth-Matalab-Arth-Meaning

यजुर्वेद

यजुर्वेद ( Yajurveda) प्रथम अध्याय संस्कृत श्लोक के हिंदी अर्थ

Yajurveda Sankrit shloka ke hindi arth.

The first chapter of Yajurveda in Hindi. meaning of Shloka in Yajurveda in Hindi.

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अथ प्रथमोऽध्यायः

(ऋषि-परमेष्ठी, प्रजापति । देवता-सविता, यज्ञ, विष्णु, अग्नि, प्रजापति, अप्सवितारौ, इन्द्र, वायु, द्यौविद्युतौ । छन्द- बृहती, उष्णिक्, त्रिष्टुप्, जगती, अनुष्टुप्, पंक्ति, गायत्री।)

ॐ इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमायकर्मणऽ आप्यायध्वमध्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीर- नमीवाऽअयक्ष्मा मा वस्तेनऽईशत माघश सोध्रुवाऽअस्मिन् गौपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून्पाहि ॥ 1 ॥

हे शाखे ! रस और बल प्राप्त करने के लिए हम तुझे स्वच्छ करते हैं। तथा पलाश यज्ञ की फल रूप जो वृष्टि है, उसके निमित्त हम तुझे ग्रहण करते हैं। हे गोवत्सो! तुम खेल-स्थल में हो, अतः माता से अलग होकर दूर देश में द्रुतगति से जाओ। वायु देवता तुम्हारी रक्षा करने वाले हों। हे गौओ! ज्योतिर्मान परमात्मा तुम्हें श्रेष्ठ यज्ञ-कर्म के निमित्त तृण गोचर भूमि प्राप्त कराए, जो प्रेरणादायक और दिव्य-गुण संपन्न है। हे अहिंसक गौओ! निर्लेप मन से और निर्भय होकर तुम तृण रूप अन्न का सेवन करती हुई इन्द्र के निमित्त भाग रूप दुग्ध को सब प्रकार से वर्द्धित करो। रोगरहिता, अपत्यवती! तुम इस यजमान के आश्रय में रहो। कोई चोर आदि दुष्ट तुम्हें हिंसित न करे। उच्च स्थान पर अवस्थित होती हुई हे शाखे ! तू सब पशुओं की रक्षा करने वाली रहो। 

वसोः पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्वनो घर्मो ऽसि विश्वधाऽ असि। परमेण धाम्ना दृहस्व मा ह्वार्मा यज्ञपतिर्द्धार्षीत् ।। 2 ।।

हे दर्भमय, पवित्रे! तू इन्द्र के कामनायुक्त दुग्ध का शुद्धिकरण कार्य वाली है । तू इस स्थान पर रह । हे दुग्ध के पात्र ! तू वर्षा प्रदान करने वाल प्राप्ति में सहायक होता है। तू मिट्टी से बना है, अतः पृथ्वी ही हैं। हे मृत्तिका पात्र ! वायु का तू संचरण स्थल है तथा हवि के धारण करने में त्रैलोक्य रूप है। अपने दुग्ध धारण वाले तेज से युक्त हो। यदि तू टेढ़ा- मेढ़ा हुआ तो अनेक विघ्न उत्पन्न हो जाएंगे, अतः यथास्थित ही रहना।

वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्त्रधारम् । देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः ॥ 3 ॥

दुग्ध को शोधित करने वाले हे पवित्र छन्ने ! इस हांडी पर सहस्र धार वाले दुग्ध को क्षरित कर। सैकड़ों धार वाले छन्ने द्वारा शुद्ध हुआ दुग्ध परमात्मा पवित्र करे। दुग्ध का दोहन करने वाले हे पुरुष ! इन गौओं में से तूने किस गौ को दुहा है।

सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वधायाः । इन्द्रस्य त्वा भाग सोमेनातनच्मि विष्णो हव्यर्थ रक्ष ॥ 4 ॥

हमने दोहन की हुई जिस गौ के बारे में तुझसे पूछा है, वह ग यज्ञकर्त्ता ऋत्विजों की आयु बढ़ाने वाली है तथा यजमान की भी आयु वृद्धि करती है। सब कार्यों को संपादित करने वाली उस गौ के द्वारा सभी कृत्य संपन्न होते हैं। वह गौ सभी यज्ञीय देवताओं की पोषक है। जो दुग्ध इन्द्र का भाग है, हम उसे सोमवल्ली के रस से जामन देकर जमाते हैं। हे सबमें व्याप्त और सबके रक्षक ईश्वर ! यह हव्य रक्षा के योग्य है, अतः इसकी रक्षा कर ।

अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि ॥ 5 ॥

हे यथार्थवादी, ऐश्वर्य संपन्न, यज्ञ के संपादक अग्ने ! तेरे अनुग्रह से हम इस अनुष्ठान को कर रहे हैं। हम इसमें समर्थ हों तथा हमारा यह अनुष्ठान निर्विघ्न संपूर्ण हो। हम यजमानों ने असत्य का त्याग कर सत्य का सहारा लिया है।

 कस्त्वा युनक्ति स त्वा युनक्ति कस्मै त्वा युनक्ति तस्मै त्वा युनक्ति । कर्मणे वां वेषाय वाम् ॥ 6 ॥

परमेश्वर से व्याप्त जल को धारण करने वाले हे पात्र ! इस कार्य हेतु तू किसके द्वारा तथा किस प्रयोजन से नियुक्त किया गया है ? सभी कर्म परमेश्वर की उपासना के लिए किए जाते हैं, अतः उस प्रजापति परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए ही तेरी इस कर्म में नियुक्ति की गई है। हे शूर्पाग्निहोत्र हवनी ! तुम्हें यज्ञ कर्म के निमित्त ग्रहण किया गया है। तुम्हें अनेक कर्मों को करना है, इसलिए हम तुम्हें ग्रहण करते हैं।

प्रत्युष्टयं रक्षः प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्टप्त रक्षो निष्टप्ता ऽ अरातयः । उर्वन्तरिक्षमन्वेमि ॥ 7 ॥

हे शूर्पाग्निहोत्र (शूर्प और अग्निहोत्र) ! हवनी तप्त करने से राक्षसों द्वारा प्रेरित अशुद्धता भस्म हो गई। शत्रु भी भस्म हो गए। हविर्दान आदि कर्मों में विघ्न डालने वाले दुष्ट जल गए। इस ताप से शूर्प में लगी मलिनता, राक्षस और शत्रु भी दग्ध हो गए। हम इस अंतरिक्ष का अनुसरण करते हैं। हमारी यात्रा के समय सब विघ्न दूर हो जाएं।

धूरसि धूर्व धूर्वन्तं धूर्व तं योऽस्मान्धूर्वति तं धूर्व यं वयं धूर्वामः । देवानामसि वह्नितम सस्नितमं पप्रितमं जुष्टतमं देव हूतमम् ॥ 8 ॥

दोषों का नाश करने और अंधेरे को मिटाने वाले हे अग्ने ! हिंसक असुरों और पापियों को नष्ट कर। जो दुष्ट यज्ञ में व्यवधान डाले, हमारी हिंसा करना चाहे, उसे भी संतप्त कर। जिसका हम नाश करना चाहें, उसे मार। हे शकट के ईषादंड! अत्यंत दृढ़, हव्यादि के योग्य धानों से भरा हुआ तू देवताओं के सेवनीय पदार्थों का वहन करता है और देवताओं का प्रीति-पात्र है तथा देवताओं का आह्वान करने वाला है।

अह्रुतमसि ह॑विर्धानं दृहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिर्द्वार्षीत् । विष्णुस्त्वा क्रमतामुरु वातायापहत रक्षो यच्छन्तां पंच ॥ १ ॥

हे ईषादंड! तू टेढ़ा नहीं है, अतः कुटिल न होना। तेरे स्वामी यजमान भी टेढ़े न हों। हे शकट! व्यापक यज्ञ पुरुष तुझ पर आरूढ़ हों । हे शकट! वायु के प्रवेश से तू शुष्क हो जा। इसलिए हम तुझे विस्तृत करते हैं। यज्ञ में पड़ने वाले विघ्न दूर हुए। हे उंगलियो ! तुम ब्रीहि रूप हव्य को ग्रहण कर इस शूर्प में रख दो।

देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। अग्नये जुष्टं गृह्णाम्यग्नीषोमाभ्यां जुष्टं गृह्णामि ॥ 10 ॥

सवितादेव की प्रेरणा से हे हव्य पदार्थों ! अश्विनी कुमारों और पूषा के बाहुओं और हाथों के द्वारा हम तुम्हें ग्रहण करते हैं। प्रिय अंश को हम अग्नि के निमित्त ग्रहण करते हैं। अग्निषोमा देवताओं के निमित्त हम इस प्रिय अंश को ग्रहण करते हैं।

भूताय त्वा नारातये स्वरभिविख्येषंदृ हन्तां दूर्याः पृथिव्यामुर्वन्तरिक्षमन्वेमि । पृथिव्यास्त्वा नाभौ स दयाम्यदित्या उपस्थे ऽग्ने हव्यथं रक्ष ॥ 11 ॥

हे शकट स्थित ब्रीहिशेष ! तू संचित करने के लिए नहीं, ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए ग्रहण किया गया है। तू यज्ञ भूमि और स्वर्ग प्राप्ति का साधन रूप है। हम इसे अच्छी तरह देखते हैं। पृथ्वी पर बना हुआ यह यज्ञ मंडप सुदृढ़ हो। हम इस विशाल आकाश में गमन करते हैं। दोनों प्रकार के व्यवधान नष्ट हों । हे धान्य ! हम तुझे पृथिवी की नाभि | रूप वेदी में स्थापित करते हैं। तू इस मातृभूता वेदी की गोदी में उत्तम प्रकार से अवस्थित हो। हे अग्ने! देवताओं की यह हव्य सामग्री है। तू हवि रूप धान्य का रक्षाकारी हो, जिससे कोई व्यवधान उपस्थित न हो।

पवित्रे स्थो वैष्णव्यो सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्य्यस्य रश्मिभिः। देवीरापोऽअग्रेगुवोऽअग्रेपुवोऽग्रऽद्य यज्ञ नयताग्रे यज्ञपति सुधातुं यज्ञपतिं देवयुवम् ॥ 12 ॥

हे दो कुशाओ ! तुम यज्ञ से संबंधित पवित्र करने वाले हो। हे जलो! सर्वप्रेरक सवितादेव की प्रेरणा से हम तुम्हें छिद्र रहित पवित्र करने वाले वायु रूप से सूर्य की शोधक किरणों से मंत्राभिषिक्त कर शोधित करते हैं। हे जल! तू परमेश्वर के तेज से तेजस्वी हो। आज तू इस यज्ञानुष्ठान को निर्विघ्न संपूर्ण कर, क्योंकि तू सदा नीचे की ओर गमन करता रहता है। प्रथम शोधक तू हमारे यज्ञकर्त्ता यजमान को फल प्राप्ति में समर्थ कर। जो यजमान दक्षिणा आदि के द्वारा यज्ञ-कर्म का पालन करता है। और हवि प्रदान करने की कामना करता है, उसे यज्ञ कर्म में लगा, उसका उत्साह भंग न कर ।

युष्माऽइन्द्रो वृणीत वृत्रतूर्ये यूयमिन्द्रमवृणीध्वं वृत्रतूर्ये प्रोक्षिता स्थ। अग्नये त्वा जुष्टं प्रोक्षाम्यग्नीषोमाभ्यां त्वा जुष्टं प्रोक्षामि । दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वं देवयज्यायै यद्वोऽशुद्धाः पराजघ्नुरिदं वस्तच्छुन्धामि ॥ 13 ॥

इन्द्र ने वृत्र वध में लगने पर जल को अपने सहायक रूप में स्वीकार किया और जल ने भी हनन-कर्म में इन्द्र से प्रीति रखी। सभी यज्ञ-पदार्थ जल द्वारा ही शुद्ध होते हैं, अतः पहले जल को ही शोधित किया जाता है। हे जल! तू अग्नि का सेवनीय है, हम तुझे शुद्ध करते हैं। हे हवि ! अग्नि एवं सोम देवता के सेवनीय! हम तुझे शुद्ध करते हैं। हे कखल मूसलादि यज्ञ पात्रो ! तुम इस देवानुष्ठान कार्य में लगोगे, अतः शुद्ध जल द्वारा तुम भी स्वच्छ हो जाओ। बढ़ई ने तुम्हें बनाया और निर्माण काल में तुम अपवित्र हुए। अब जल द्वारा हम तुम्हें शुद्ध करते हैं।

शर्मास्यवधूत रक्षोऽवधूताऽअरातयोऽदित्यास्त्वगसि प्रतित्वादितिर्वेत्तु । अद्रिरसि वानस्पत्यो ग्रावासि पृथुबुघ्नः प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्तु ॥ 14 ॥

हे कृष्णाजिन तू इस ऊखल को धारण करने योग्य है। इस मृग चर्म (कृष्णाजिन) में जो धूल, तिनका आदि मैल छिपा था, वह सब दूर हो गया। यजमान के शत्रु भी इस कर्म से पतित हो गए। पृथ्वी की त्वचा रूप कृष्णाजिन को पृथ्वी ग्रहण करती हुई अपनी ही त्वचा माने। हे उलूखल! काष्ठ द्वारा निर्मित होता हुआ भी तू पाषाण जैसा दृढ़ है। तेरा मूल देश स्थूल है। हे उलूखल ! नीचे बिछाई गई कृष्णाजिन रूप जो त्वचा है, वह तुझे स्वात्म भाव से मानें।

अग्नेस्तनूरसि वाचो विसर्जनं देववीतये त्वा गृह्णामि बृहद्ग्रावासि वानस्पत्यः स इदं देवेभ्यो हविः शमीष्व सुशमि शमीष्व । हविष्कृदेहि हविष्कृदेहि ॥ 15 ॥

हे हविरूप धान्य ! तू अग्नि का देहरूप ही माना गया है, क्योंकि तुझे कुंड में डाले जाते ही अग्नि की ज्वालाएं प्रदीप्त हो उठती हैं। अग्नि में पहुंचते ही तू अग्नि रूप हो जाता है। यह हवि यजमान द्वारा मौन-त्याग करने पर ‘वाची विसर्जन’ नाम्नी हो जाती है। अग्न्यादि देवताओं के

निमित्त मैं तुझे ग्रहण करता हूं। हे मूसल! काष्ठ निर्मित होता हुआ भी त | हम महान् देवताओं के कर्म के निमित्त तुझे पाषाढ़ की भांति सुदृढ़ ग्रहण करते हैं। तू अग्न्यादि देवताओं के लाभार्थ इस ब्रीहि आदि हवि को भूसी आदि से अलग कर। अक्षतों में भूसी न रहे और वे अधिक न टूटे इस कार्य को संपूर्ण कर। हे हवि प्रदान करने वाले ! तुम इधर आओ और हे हवि संस्कारक! इधर आगमन कर। तुम इधर आओ (इस प्रकार तीन बार आह्वान करो)।

कुक्कुटोऽसि मधुजिह्वऽइषमूर्जमावद त्वया वय संघात संघातं जेष्म वर्षवृद्धमसि प्रति त्वा वर्षवृद्धं वेत्तु परापूतथं रक्षः परापूता अरातयोऽपहत रक्षो वायुर्वो विविनक्तु देवो वः सविता हिरण्यपाणिः प्रतिगृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना । 16 ॥

यज्ञ का विशिष्ट शम्यारूप आयुध राक्षसों के प्रति घोर और देवताओं के लिए मधुर शब्द करने वाला है। हे आयुध ! तू राक्षसों का हृदय चीरने | और यजमान को अन्नादि प्राप्त करने वाला शब्द कर। तेरे शब्द से यज्ञ के फलार्थ अन्न की अधिकता हो। हे शूर्प ! वर्षा के जल से बढ़ने वाली सींकों से तू बनाया गया है। हे तंडुलरूप हव्य ! वर्षा के जल से तू बढ़ा है और यह शूर्प भी वृष्टि जल से ही वृद्धि को प्राप्त हुआ है, अतः यह तुझे अपना आत्मीय जाने । तू इसकी संगति कर। भूसी आदि निरर्थक द्रव्य और असुर आदि भी दूर हो गए। हवि के विरोध प्रमादादि शत्रु भी चले गए। हव्यात्मक विघ्नों को फेंक दिया गया। हे तंडुलो ! शूर्प चलने से पैदा हुई वायु भूसी आदि के सूक्ष्म कणों से तुमको अलग कर दे और सर्वप्रेरक सविता देवता सुवर्णालंकार से सुशोभित और सुवर्णहस्त है। वह उंगलीयुक्त हाथों से तुम्हें ग्रहण करे।

धृष्टिरस्यपाऽग्नेऽ अग्निमामादं जहि निष्क्रव्याद सेधादेवयजं वह । ध्रुवमसि पृथिवीं दृथं ह ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि सजातवन्युपदधामि भ्रातृव्यस्य वधाय ॥ 17 ॥

तीव्र अंगारों को चलाने में समर्थ उपवेश अत्यंत बुद्धिमान है। हे आह्वानीय अग्ने ! आमात् अग्नि को त्याग और क्रव्याद् अग्नि को दूर कर। हे गार्हपत्याग्ने! देवताओं के यज्ञ योग्य अपने तृतीय रूप को प्रकट कर।

कर हे अग्ने! तू हमारे विशाल अनुष्ठान को विघ्न रहित करके ग्रहण द्वितीय कपाल ! तू पुरोडाश का धारणकर्ता है, अतः अंतरिक्ष को सु कर। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य से स्वीकार योग्य पुरोडाश के संपादनार्थ और शत्रु, असुर एवं पापादि के विनाश के लिए हम तुझे नियुक्त करते हैं। हे तृतीय कपाल ! तू पुरोडाश का धारक है। तू स्वर्गलोक को सुदृढ़ कर। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य द्वारा संपादित को प्रस्तुत करने और विघ्नादि को दूर करने के लिए हम तुझे नियुक्त करते हैं। हे चतुर्थ कपाल! तू सभी दिशाओं को सुदृढ़ करने वाला हो। मैं तुम्हें इसीलिए स्थापित करता हूं। हे कपालो! तुम पृथक कपाल के दृढ़ करनेवाले और अन्य कपालों के हितैषी हो। हे समस्त कपालो! तुम भृगु और अंगिरा के वंशज ऋषियों के तप रूप अग्नि से तपो।

हे सिकोरे तू स्थिर हो जा तथा इस स्थान में पूर्ण दृढ़ता से अवस्थित रहता हुआ पृथ्वी को दृढ़ कर हवि-सिद्धि के लिए तू ब्राह्मणों और क्षत्रियों द्वारा ग्रहणीय हो। समान कुल में उत्पन्न यजमान के जाति वालों के हव्य योग्य शत्रु असुर और पाप को नष्ट करने के लिए हम तुझे अंगार पर स्थित करते हैं।

अग्ने ब्रह्म गृभ्णीष्व धरुणमस्यन्तरिक्षं दूध ह ब्रह्मवनि त्वा क्षेत्रवनि सजातवन्युपदधामि भ्रातृव्यस्य वधाय । धर्त्रमसि दिवं दृ ह ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि सजातवन्युपदधामि भ्रातृव्यस्य वधाय । विश्वाभ्यस्त्वाशाभ्यऽउपदधामि चित स्थोर्ध्वचितो भृगूणामंगिरसां तपसा तप्यध्वम् ॥ 18 ॥

शर्मास्यवधूत रक्षोऽवधूताऽअरातयोऽदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादि तिर्वेत्तु । धिषणासि पर्वती प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्त दिवः स्कम्भनीरसि धिषणासि पार्वतेयी प्रति त्वा पर्वती वेत्तु ॥ 19 ॥

शिला धारण करने में समर्थ कृष्णाजिन में धूल और तिनका रूप जो मैल छिपा था, वह दूर हो गया। इस कर्म के द्वारा यजमान के बैरी भी पतित हो गए। पृथ्वी के त्वचा रूप कृष्णाजिन को पृथ्वी धारण करे और अपनी त्वचा ही माने। हे शिला! तू पीसने की आश्रयभूता है और पर्वत के खंड से निर्मित हुई है तथा बुद्धि का धारणकर्ता है। यह मृग चर्म पृथ्वी  की त्वचा की भांति है और तू पृथ्वी का अस्थि रूप है। इस प्रकार जान हुआ तू सुसंगत हो। हे शम्या! तू स्वर्गलोक को धारण करने वाली हो इसीलिए तुम समर्थ हो। हे शिललोढ़े ! तू पीसने के व्यापार में कुशल और पर्वत से उत्पन्न शिल की पुत्री रूप है। इसलिए माता के समान यह शिल तुझे पुत्र भाव से अपने हृदय में बसाए ।

धान्यमसि धिनुहि देवान् प्राणाय त्वोदानाय त्वा व्यानाय त्वा। दीर्घामनु प्रसितिमायुषे धां देवों वः सविता हिरण्यपाणि: प्रतिगृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना चक्षुषे त्वा महीनां पयोऽसि ॥ 20 ॥

तृप्तिकारक हव्य अग्नि आदि देवताओं को प्रसन्न करे। हे हवि। मुख में जो प्राण सचेष्ट रहता है, उस प्राण की प्रसन्नता के लिए तथा ऊर्ध्व स्थान में चेष्टा करने वाले उदान की वृद्धि के लिए और सब शरीर में व्यास होकर सचेष्ट रहने वाले व्यान की वृद्धि के लिए हम तुझे पीसते हैं। है हवि ! अविच्छिन्न कर्म को ध्यान में रखकर यजमान की आयु बढ़ाने के निमित्त हम तुझे कृष्णाजिन पर रखते हैं । सर्वप्रेरक और हिरण्यपाणि सवितादेव तुझे धारण करें। हे हवि ! यजमान के नेत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट होने के लिए हम तुझे देखते हैं। हे घृत ! तू गोदुग्ध से निर्मित होने के कारण गोदुग्ध ही है।

देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सं वपामि समापऽओषधीभिः समोषधयो रसेन। स रेवतीर्जगतीभिः पृच्यन्ता सं मधुमतीर्मधुमतीभिः पृच्यन्ताम् ॥ 21 ॥

हे पिष्टि! पूषा देवता के हाथों से, अश्विनी कुमारों की भुजाओं से और सवितादेव की प्रेरणा से हम तुझे पात्र में स्थित करते हैं। हे जल! तू इन पिसे हुए चावलों में अच्छी तरह मिल। यह जल औषधियों का रस है और इसमें जो रेवती नामक जल भाग है, वह इस पिष्टि में अच्छी तरह मिल जाए। इसमें जो मधुमति नामक जलांश है, वह भी पिष्टि में मिलकर माधुर्य युक्त हो जाता है।

जनयत्यै त्वा संयौमीदमग्नेरिदमग्नीषोमयोरिषे त्वा धर्मोऽसि विश्वायुरुरुप्रथाऽउरु प्रथस्वोरु ते यज्ञपतिः प्रथताम् अग्निष्टे त्वच॑ मा हि सीद्देवस्त्वा सविता श्रपयतु वर्षिष्ठेऽधि नाके ॥ 22 ॥

 जल और पिष्टि दोनों को पुरोडाश की वृद्धि के निमित्त संयुक्त करते हैं। यह भाग अग्नि से संबंधित हो। यह अग्नि-सोम नामक देवताओं का भाग है। हे आज्य! देवताओं को अन्न प्रदान करने के लिए मैं तुझे आठ सिकोरों में रखता हूं । हे पुरोडाश! तू इस घृत पर दमकता है। इस कार्य के द्वारा हमारा यजमान दीर्घजीवी हो। हे पुरोडाश! तू स्वभावतः विस्तृत हो, अतः इस कपाल में भी अच्छी तरह विस्तृत हो और तेरा यह यजमान पुत्र, पशु आदि से संपन्न होकर यशस्वी बने । हे पुरोडाश! पाक क्रिया से उत्पन्न हव्य का उपद्रव जल के स्पर्श से ही शांत हो जाए और हे पुरोडाश! सर्वप्रेरक सवितादेव तुझे अत्यंत समृद्ध स्वर्गलोक में स्थित नाक नामक दिव्याग्नि में पक्व करे।

मा भेर्मा संविक्थाऽअतमेरुर्यज्ञोऽतमेरुर्यजमानस्य प्रजा भूयात् त्रिताय त्वा द्विताय त्वैकताय त्वा ॥ 23 ॥

हे पुरोडाश! तू भयभीत और चंचल मत हो, स्थिर ही रह तथा यज्ञ का कारण रूप तू भस्मादि के ढकने से बचे। इस प्रकार यजमान की संतति कभी दुःखी न हो। हे उंगली प्रक्षालन से छने हुए जल ! हम तुझे त्रित देवता की तृप्ति के लिए प्रदान करते हैं। हम तुझे द्वित नामक देवता की संतुष्टि के लिए देते हैं और एकत नामक देवता की तृप्ति के निमित्त देते हैं।

देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददेऽध्वरकृतं देवेभ्यऽइन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिणः सहस्रभृष्टिः शततेजा वायुरसि तिग्मतेजा द्विषतो वधः ॥ 24 ॥

अश्विनी कुमारों की भुजाओं से, पूषादेव के हाथों से और सवितादेव की प्रेरणा से हम खुरपा -कुदाल को ग्रहण करते हैं। हे खुरपे ! तू इन्द्र के दक्षिण बाहु के समान है तथा सहस्रों शत्रुओं और राक्षसों के विनाश करने में अनेक तेजों से संपन्न है। तुझमें वायु की भांति वेग है। जिस प्रकार वायु अग्नि की सहायक होकर ज्वलाओं को तीक्ष्ण करती है, उसी प्रकार खनन-कर्म में यह स्पष्ट तीव्र तेजयुक्त है और श्रेष्ठ कर्मों से द्वेष करने वाले राक्षसों का विनाश करने वाला है।

पृथिवि देवयजन्योषध्यास्ते मूलं मा हिसिषं व्रजं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव । सवितः परमस्यां पृथिव्याधशर पाशैर्योऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तमतो मा मौक् ॥ 25 ॥

हे देवताओं के यज्ञ योग्य पृथ्वी! तेरी प्रिय संतति रूप औषधि के तृण-मूलादि को मैं नष्ट नहीं करता। हे पुरीष! तू गौओं के स्थान गोष्ट को प्राप्त हो। हे वेदी! स्वर्गलोक का अभिमानी देवता सूर्य जल की वृष्टि के लिए करे और इस वृष्टि से खनन द्वारा उत्पन्न पीड़ा की शांति हो। है सर्वप्रेरक सवितादेव ! जो व्यक्ति हमसे द्वेष करे अथवा हम जिससे द्वेष करें, ऐसे दोनों तरह के वैरियों को तू इस पृथ्वी की अंतर्सीमा रूप नरक में डाल और सैकड़ों बंधनों में बांध दे। उसका उस नरक से कभी पिंड न छूटे।

अपाररुं पृथिव्यै देवयजनाद्वध्यासं व्रजं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव सवितः परमस्यां पृथिव्या शतेन पाशैर्यो ऽस्मान्द्वेष्टि च वयं द्विष्मस्तमतो मा मौक् । अररो दिवं मा पप्तो द्रप्सस्ते द्यां मा स्कन् व्रजं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव सवितः परमस्यां पृथिव्या शतेन पाशैर्योऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तमतो मा मौक् ॥ 26 ॥

विघ्नकारी अररु नामक राक्षस को पृथ्वी स्थित देवताओं के यज्ञ वाले स्थान वेदी से निकालकर मारते हैं। हे पुरीष! तू गौओं के गोष्ठ को प्राप्त हो । हे वेदी ! तेरे लिए सूर्य जल वर्षा करें, जिससे तेरा खननकालीन कष्ट दूर हो। हे सवितादेव ! जो हमसे द्वेष करे अथवा हम जिससे द्वेष करें, ऐसे वैरियों को नरक में डाल और सैकड़ों बंधनों से जकड़ दे। उस नरक से वे कभी न छूट पाएं। हे अररो ! यज्ञ के फल रूप स्वर्गलोक जैसे श्रेष्ठ स्थान को तू मत जाना। हे वेदी! तेरा पृथ्वी रूप उपजीह्न नामक रस स्वर्गलोक में न जाए, पुरीष गौओं के गोष्ठ में जाए, सूर्य वेदी के लिए जलवृष्टि करे, जिससे उसकी खनन-वेदना शांत हो। सवितादेव द्वेष करने वाले वैरियों को नरक के सैकड़ों पाशों में बांधे और वे उस घोर नरक से कभी मुक्त न हो सकें। गायत्रेण त्वा छन्दसा परिगृह्णामि त्रैष्टु भेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि  है। = रम ‘॥ हम तए ल

जागतेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि । सुक्ष्मा चासि शिवा चासि स्योना चासि सुषदा चास्यूर्जस्वती चासि पयस्वीती च ॥ 27 ॥

हे सर्वव्यापक विष्णो! हम जप करने वाले की रक्षा करने वाले गायत्री छन्द से भावित स्पय द्वारा तुझे तीनों दिशाओं में ग्रहण करते हैं। हे विष्णो! हम तुझे त्रिष्टुप् और जगती छन्द से ग्रहण करते हैं। हे वेदी ! तू पाषाणादि से हीन होकर सुंदर हो गई है और अररु जैसे राक्षस के विघ्न दूर होने पर तू शांति रूप वाली हुई है। तू सुख की आश्रयभूत है एवं देवताओं के निवास योग्य है। तू अन्न और रस से परिपूर्ण हो ।

पुरा क्रूरस्य विसृपो विरप्शिन्नु दादाय पृथिवीं जीवदानुम् । यामैरयंश्चन्द्रमसि स्वधाभिस्तामु धीरासोऽअनुदिश्य यजन्ते । प्रोक्षणीरासादय द्विषतो वधोऽसि ॥28॥

हे विष्णु ! तू यज्ञ स्थान में तीन वेद के रूप में अनेक शब्द करने वाला है। तू हमारी इस बात को अनुग्रहपूर्वक सुन। प्राचीनकाल में अनेक वीरों वाले समर में देवताओं ने प्राणियों के धारण करने वाली जिस पृथ्वी को ऊंचा उठाकर वेदों सहित चंद्रलोक में स्थित किया था, मेधावीजन उसी पृथ्वी के दर्शन से यज्ञ का संपादन करते हैं। हे आग्नीध्र ! वेदी एक समान हो गई है। जिसके द्वारा जल का सिंचन किया जाता है, उसे लाकर वेदी में स्थापित कर । हे स्फुय ! तू शत्रुओं को नष्ट करने वाला है, अतः हमारे शत्रु को भी नष्ट कर।

प्रत्युष्ट्रं रक्षः प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्टप्त रक्षो निष्टप्ताऽअरातयः । अनिशितोऽसि सपत्नक्षिद्वाजिनं त्वा वाजेध्यायै सम्मामि । प्रत्युष्ट रक्षः प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्टप्त रक्षो निष्टप्ताऽअरातयः । अनिशिताऽसि सपत्नक्षिद्वाजिनीं त्वा वाजेध्यायै सम्माज्मि ॥ 29 ॥

असुर आदि सभी विघ्न इस ताप द्वारा भस्म हुए। सभी शत्रु भी भस्म हो गए। इस ताप द्वारा यहां उपस्थित बाधाएं, असुर और शत्रु आदि सब भस्म हुए। हे स्रुव ! तेरी धार तीक्ष्ण नहीं है, किन्तु तू शत्रुओं को क्षीण करने वाला है। इस यज्ञ द्वारा यह देश अन्न से संपन्न हो। हम तुझे प्रक्षालन करते हैं, जिससे यज्ञ दीप्ति से युक्त हो। इस ताप द्वारा संपूर्ण विघ्न और शत्रुजन भस्म हो गए। इस ताप से यहां उपस्थित बाधा और 

शत्रु आदि सभी भस्मीभूत हो गए। हे सुक्त्रय ! तू तीक्ष्ण धार वाला न होने पर भी शत्रु को नष्ट करने में समर्थ है। इसलिए हम तेरा प्रक्षालन करते हैं। कि यह देश प्रचुर अन्न से संपन्न रहे ।

अदित्यै रास्नासि विष्णोर्वेष्यो ऽस्यूर्जे त्वा ऽदब्धेन चक्षुषावपश्यामि।अग्नेर्जिह्वासि सुहूर्देवेभ्यो धाम्ने धाम्ने मे भव यजुर्व यजुषे ॥ 30 ॥

हे योक् ! तू भूमि की मेखला की भांति है। हे दाहिने पाश ! तू इस सर्वव्यापी यज्ञ को प्रशस्त करने में समर्थ है। हे आज्य ! हम तुझे उत्तम रस की प्राप्ति के उद्देश्य से द्रवीभूत करते हैं तथा स्नेहमयी दृष्टि द्वारा तुझे मुंह नीचा करके देखते हैं। तू उत्तम प्रकार से देवताओं का आह्वान करने वाला और अग्नि का जिह्वा रूप है, अतः तू हमारे इस यज्ञ फल की सिद्धि तथ यज्ञ की संपन्नता के योग्य हो ।

सवितुस्त्वा प्रसव ऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। सवितुर्वः प्रसव ऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि धाम नामासि प्रियं देवानामनावृष्ट देवयजनमसि ॥ 31 ॥

हे आज्य! सवितादेव की प्रेरणा से हम तुझे छिद्र रहित वायु को भांति पवित्र और सूर्य की किरणों के तेज से शुद्ध करते हैं। तू उज्ज्वल देह वाला होने से तेजस्वी है। स्निग्ध होने से दीप्तियुक्त है और अमृत को भांति स्थायी तथा निर्दोष है। हे आज्य! तू देवताओं का हृदय स्थान है। तु सदा आनंद पहुंचाने वाला है। देवताओं के समक्ष तेरा नाम लिया जाता है। तू देवताओं का प्रीति भाजन है। सारयुक्त होने से तू तिरस्कृत नहीं होता। तू देवयाग का प्रमुख स्थल है। अतः हे आज्य! हम यजमान तुझे ग्रहण करते हैं।

१. नागदेवता का पूजन

१ अ. नागदेवता का चित्र बनाना

हलदीमिश्रित चंदन से दीवार पर अथवा पीढे पर नाग (अथवा नौ नागों ) का चित्र बनाएं । फिर उस स्थान पर नागदेवता का पूजन करें । ‘अनंतादिनागदेवताभ्यो नमः ।’ यह नाममंत्र कहते हुए गंध, पुष्प इत्यादि सर्व उपचार समर्पित करें ।

 

१ आ. षोडशोपचार पूजन

जिन्हें नागदेवता की ‘षोडशोपचार पूजा’ करना संभव है, वे षोडशोपचार पूजा करें ।

१ इ. पंचोपचार पूजन

जिन्हें नागदेवता की ‘षोडशोपचार पूजा’ करना संभव नहीं, वे ‘पंचोपचार पूजा’ करें एवं दूध, शक्कर, खीलों का अथवा कुल की परंपरा अनुसार खीर इत्यादि पदार्थाें का नैवेद्य दिखाएं । (पंचोपचार पूजा : चंदन, हलदी-कुंकू, पुष्प (उपलब्ध हो तो दूर्वा, तुलसी, बेल) धूप, दीप एवं नैवेद्य, इस क्रम से पूजा करना ।)

 

२. पूजन के उपरांत नागदेवता से की जानेवाली प्रार्थना !

‘हे नागदेवता, आज श्रावण शुक्ल पक्ष पंचमी को मैंने जो यह नागपूजन किया है, इस पूजन से आप प्रसन्न होकर मुझे सदैव सुखी रखें । हे नागदेवता, इस पूजन में जाने-अनजाने मुझसे कोई भूल हुई हो, तो मुझे क्षमा करें । आपकी कृपा से मेरे सर्व मनोरथ पूर्ण हों । मेरे कुल में कभी भी नागविष से भय उत्पन्न न हो’, ऐसी आपके श्रीचरणों में प्रार्थना है ।’

सर्वसामान्य लोगों को इसकी जानकारी नहीं होती कि नागपूजन कैसे करें । पूजा करते समय वह भावपूर्ण हो एवं नागदेवता की उनपर कृपा हो, इस उद्देश्य से धर्माचरण के रूप में आगे विस्तार से पूजाविधि दी है ।

 

 

३. आचमन

आगे दिए गए ३ नाम उच्चारने पर प्रत्येक नाम के अंत में बाएं हाथ से आचमनी से पानी लेकर दाएं हाथ में लेकर पिएं –

श्री केशवाय नमः । श्री नारायणाय नमः । श्री माधवाय नमः ।

‘श्री गोविंदाय नमः’ का उच्चारण कर हथेली पर पानी लेकर नीचे ताम्रपात्र में छोडें ।

अब आगे के नामों का क्रमानुसार उच्चारण करें ।

विष्णवे नमः । मधुसूदनाय नमः । त्रिविक्रमाय नमः । वामनाय नमः । श्रीधराय नमः । हृषीकेशाय नमः । पद्मनाभाय नमः । दामोदराय नमः । संकर्षणाय नमः । वासुदेवाय नमः । प्रद्युम्नाय नमः । अनिरुद्धाय नमः । पुरुषोत्तमाय नमः । अधोक्षजाय नमः । नारसिंहाय नमः । अच्युताय नमः । जनार्दनाय नमः । उपेन्द्राय नमः । हरये नमः । श्रीकृष्णाय नमः ।

(हाथ जोडें ।)

 

४. प्रार्थना

श्रीमन्महागणाधिपतये नमः ।
(गणों के नायक श्री गणपति को मैं नमस्कार करता हूं ।)

इष्टदेवताभ्यो नमः ।
(मेरे आराध्य देवता को मैं नमस्कार करता हूं।)

कुलदेवताभ्यो नमः ।
(कुलदेवता को मैं नमस्कार करता हूं ।)

ग्रामदेवताभ्यो नमः ।
(ग्रामदेवता को मैं नमस्कार करता हूं ।)

स्थानदेवताभ्यो नमः ।
(यहां के स्थान देवता को मैं नमस्कार करता हूं ।)

वास्तुदेवताभ्यो नमः ।
(यहां के वास्तुदेवता को मैं नमस्कार करता हूं ।)

आदित्यादिनवग्रहदेवताभ्यो नमः ।
(सूर्यादि नौ ग्रहदेवताओं को मैं नमस्कार करता हूं ।)

सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः ।
(सर्व देवताओं को मैं नमस्कार करता हूं ।)

सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमो नमः ।
(सर्व ब्राह्मणों को (ब्रह्म जाननेवालों को) मैं नमस्कार करता हूं ।)

अविघ्नमस्तु ।
(सर्व संकटों का नाश हो ।)

सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः । लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो गणाधिपः ॥
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः । द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ॥
विद्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । सङ्ग्रामे सङ्कटेचैव विघ्नस्तस्य न जायते ।
(सुंदर मुख, एक दांत, धुंए के रंग, हाथी के समान कान, विशाल पेट, (दुर्जनों के नाश के लिए) विक्राल रूपवाले, संकटों का नाश करनेवाले, गणों के नायक धुएं के रंगवाले, गणों के प्रमुख, मस्तक पर चंद्र धारण करनेवाले तथा हाथी के समान मुखवाल, इन श्री गणपति के बारा नामों का विवाह के समय, विद्याध्ययन प्रारंभ करते समय, (घर में) प्रवेश करते समय अथवा (घर से) बाहर निकलते समय, युद्ध पर जाते समय अथवा संकटकाल में जो पठन करेगा अथवा सुनेगा उसे विघ्न नहीं आएंगे ।)

शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् । प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥
(सर्व संकटों के नाश के लिए शुभ्र वस्त्र धारण किए हुए, शुभ्र रंगवाले, चार हाथवाले प्रसन्न मुखवाले देवता का (भगवान श्रीविष्णु का) मैं ध्यान करता हूं ।)

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ॥
(सर्व मंगलों में मंगल, पवित्र, सभी का कल्याण करनेवाली, तीन आंखोंवाली, सभी का शरण स्थानवाली, शुभ्र वर्णवाली हे नारायणीदेवी, मैं नमस्कार करता हूं ।

सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम् । येषां हृदिस्थो भगवान्मङ्गलायतनं हरिः ॥
(मंगल निवास में (वैकुंठ में) रहनेवाले भगवान श्रीविष्णु जिनके हृदय में रहते हैं, उनके सभी काम सदैव मंगल होते हैं ।)

तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव । विद्याबलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽङ्घ्रियुगं स्मरामि ॥
(हे लक्ष्मीपति (विष्णो), आपके चरणकमलों का स्मरण ही लग्न, वही उत्तम दिन, वही ताराबल, वही चंद्रबल, वही विद्याबल और वही दैवबल है ।)

लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः । येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ॥
(नीले रंगवाले, सभी का कल्याण करनेवाले (भगवान विष्णु) जिनके हृदय में वास करते हैं, उनकी पराजय कैसे होगी ! उनकी सदैव विजय ही होगी, उन्हें सर्व (इच्छित) बातें प्राप्त होंगी !)

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थाे धनुर्धरः । तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
(जहां महान योगी (भगवान) श्रीकृष्ण और महान धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहां ऐश्वर्य एवं जय निश्चित होती है, ऐसा मेरा मत और अनुमान है ।)

विनायकं गुरुं भानुं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान् । सरस्वतीं प्रणौम्यादौ सर्वकार्यार्थसिद्धये ॥
(सर्व कार्य सिद्ध होने के लिए प्रथम गणपति, गुरु, सूर्य, ब्रह्मा-विष्णु-महेश और सरस्वतीदेवी को नमस्कार करता हूं ।)

अभीप्सितार्थसिद्धयर्थं पूजितो यः सुरासुरैः । सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः ॥
(इच्छित कार्य पूर्ण होने के लिए देवता और दानवों को पूजनीय तथा सर्व संकटों का नाश करनेवाले गणनायक को मैं नमस्कार करता हूं ।)

सर्वेष्वारब्धकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः । देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दनाः ॥
(तीनों लोकों के स्वामी ब्रह्मा-विष्णु-महेश ये त्रिदेव (हमें) प्रारंभ किए हुए सर्व कार्याें में सफलता प्रदान करें ।)

 

५. देशकाल

अपनी आंखों पर पानी लगाकर आगे दिया देशकाल बोलें ।

श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे विष्णुपदे श्रीश्‍वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे युगचतुष्के कलियुगे प्रथमचरणे जम्बुद्वीपे भरतवर्षे भरतखण्डे दक्षिणपथे रामक्षेत्रे बौद्धावतारे दण्डकारण्ये देशे गोदावर्याः दक्षिणे तीरेे शालिवाहन शके अस्मिन् वर्तमाने व्यावहारिके शोभकृत् नाम संवत्सरे दक्षिणायने वर्षा ऋतौ श्रावण मासे शुक्ल पक्षे पंचम्यां तिथौ, सोम वासरे, चित्रा दिवस नक्षत्रे, शुभ योगे (२२.२० पर्यंत), बव करणे (१३.१५ नंतर कौलव), कन्या (१७.३० नंतर तुला) स्थिते वर्तमाने श्रीचंद्रे, सिंह स्थिते वर्तमाने श्रीसूर्ये, मेष स्थिते वर्तमाने श्रीदेवगुरौ, कुंभ स्थिते वर्तमाने शनैश्‍चरे शेषेषु सर्वग्रहेषु यथायथं राशिस्थानानि स्थितेषु एवङ् ग्रह-गुणविशेषेण विशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ…

(महापुरुष भगवान श्रीविष्णु की आज्ञा से प्रेरित हुए इस ब्रह्मदेव के दूसरे परार्धा में विष्णुपद के श्रीश्वेत-वराह कल्प में वैवस्वत मन्वंतर के अठ्ठाइसवें युग के चतुर्युग के कलियुग के पहले चरण के आर्यावर्त देश के (जम्बुद्वीप पर भरतवर्ष में भरत खंड में दंडकारण्य देश में गोदावरी नदी के दक्षिण तट पर बौद्ध अवतार में रामक्षेत्र में) आजकल चल रहे शालिवाहन शक के व्यावहारिक शोभकृत् नामक संवत्सर के (वर्ष के) दक्षिणायन में वर्षा ऋतु के श्रावण महिने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को चित्रा नक्षत्र के (टिप्पणी २) शुभ योग की शुभघडी पर, अर्थात उपरोक्त गुणविशेषों से युक्त शुभ एवं पुण्यकारक ऐसी तिथि को)

 

६. संकल्प

(दायें हाथ में अक्षत लेकर आगे दिया संकल्प बोलें ।)

मम आत्मनः परमेश्वर-आज्ञारूप-सकल-शास्त्र-श्रुतिस्मृति-पुराणोक्त-फल-प्राप्तिद्वारा श्री परमेश्वर-प्रीत्यर्थं सर्वेषां साधकानां शीघ्रातिशीघ्र आध्यात्मिक उन्नती सिद्ध्यर्थं गुरुकृपा प्राप्त्यर्थं च श्रीभृगुमहर्षेः आज्ञया सद्गुरुनाथदेवता-प्रीत्यर्थं श्रीगुरुपरंपरा पूजनम् अहं करिष्ये । तत्रादौ निर्विघ्नता सिद्ध्यर्थं महागणपतिपूजनं करिष्ये । शरीरशुद्ध्यर्थं दशवारं विष्णुस्मरणं करिष्ये । कलश-घण्टा-दीप-पूजनं च करिष्ये ।

(‘करिष्ये’ बोलने के पश्चात प्रत्येक बार बाएं हाथ से आचमनी भरकर पानी दाएं हाथ पर छोडें ।)

(मुझे स्वयं को परमेश्वर की आज्ञास्वरूप सर्व शास्त्र-श्रुति-स्मृति-पुराण का फल मिलकर परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए श्री सद्गुरुनाथ देवताओं को प्रसन्न करने के लिए श्रीभृगु महर्षि की आज्ञा से मैं श्रीगुरुपरंपरा की पूजा कर रहा हूं । उसमें पहले विघ्ननाशन के लिए महागणपतिपूजन कर रहा हूं । शरीर की शुद्धि के लिए दस बार विष्णुस्मरण कर रहा हूं तथा कलश, घंटी और दीपक की पूजा कर रहा हूं ।)

 

७. श्रीगणपतिस्मरण

वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ । निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥
(मुडी हुई सूंड, विशाल शरीर, कोटि सूर्याें के प्रकाशवाले हे (गणेश) भगवान, मेरे सभी काम सदैव विघ्नरहित करें ।)

ऋद्धि-बुद्धि-शक्ति-सहित-महागणपतये नमो नमः ।
(ऋद्धि, बुद्धि और शक्ति सहित महागणपति को नमस्कार करता हूं ।)

महागणपतये नमः । ध्यायामि ।
(महागणपति को नमस्कार कर ध्यान करता हूं ।)
(मन:पूर्वक श्री गणपति का स्मरण कर हाथ जोडकर नमस्कार करें ।)

तत्पश्चात शरीरशुद्धि के लिए दस बार श्रीविष्णु का स्मरण करें – नौ बार ‘विष्णवे नमो’ और अंत में ‘विष्णवे नमः ।’ बोलें ।

 

८. कलशपूजन

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति । नर्मदे सिन्धुकावेरी जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥
(हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु और कावेरी (नदियों) इस जल में वास करें )

कलशाय नमः ।
(कलश को नमस्कार करता हूं ।)

कलशे गङ्गादितीर्थान् आवाहयामि ।
(इस कलश में गंगादितीर्थाें का आवाहन करता हूं ।)

कलशदेवताभ्यो नमः ।
(कलशदेवतेला नमस्कार करतो.)

सकलपूजार्थे गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि ।
(सर्व पूजा के लिए चंदन, फूल और अक्षत अर्पण करता हूं ।)
(कलश पर चंदन, फूल और अक्षत चढाएं ।)

 

९. घंटीपूजन

आगमार्थं तु देवानां गमनार्थं तु रक्षसाम् । कुर्वे घण्टारवं तत्र देवताह्वानलक्षणम् ॥
(देवताओं के आगमन के लिए और राक्षसों को जाने के लिए देवताओं को आवाहनस्वरूप घंटी नाद कर रहा हूं ।)

घण्टायै नमः ।
(घंटी को नमस्कार हो ।)

सकलपूजार्थे गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि ।
(सर्व पूजा के लिए चंदन, फूल और अक्षत अर्पण करता हूं ।)
(घंटी को चंदन, फूल और अक्षत चढाएं ।)

 

१०. दीपपूजन

भो दीप ब्रह्मरूपस्त्वं ज्योतिषां प्रभुरव्ययः । आरोग्यं देहि पुत्रांश्च मत: शान्तिं प्रयच्छ मे ॥
(हे दीपक, आप ब्रह्मस्वरूप हैं । ज्योतिषों के अचल स्वामी हैं । (आप) हमें आरोग्य दीजिए, पुत्र दीजिए, बुद्धि और शांति दीजिए ।)

दीपदेवताभ्यो नमः ।
(दीपक देवता को नमस्कार करता हूं ।)

सकलपूजार्थे गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि ।
(सर्व पूजा के लिए चंदन, फूल और अक्षत अर्पण करता हूं ।) (समई को चंदन, फूल और अक्षत चढाएं ।)

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा । यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥
((अंर्त-बाह्य) स्वच्छ हो अथवा अस्वच्छ हो, किसी भी अवस्था में हो । जो (मनुष्य) कमलनयन (श्रीविष्णु का) स्मरण करता है, वह भीतर तथा बाहर से शुद्ध होता है ।)
(इस मंत्र से तुलसीपत्र जल में भिगोकर पूजासामग्री तथा अपनी देह पर जल प्रोक्षण करें ।)


पीढे (पाट पर) नवनागों का चित्र बनाना

हलदीमिश्रित चंदन से दीवार पर अथवा पीढे पर नाग का चित्र बनाएं (अथवा नौ नागों का चित्र बनाएं ।) चित्र के स्थान पर आगे दिए नाममंत्रों से नवनागों का आवाहन करें । दाएं हाथ में अक्षता लेकर ‘आवाहयामि’ कहते हुए नागदेवता के चरणों में अक्षता चढाएं ।

ॐ अनन्ताय नमः । अनन्तम् आवाहयामि ॥
ॐ वासुकये नम: । वासुकिम् आवाहयामि ॥
ॐ शेषाय नम: । शेषम् आवाहयामि ॥
ॐ शङ्खाय नम: । शङ्खम् आवाहयामि ॥
ॐ पद्माय नम: । पद्मम् आवाहयामि ॥
ॐ कम्बलाय नम: । कम्बलम् आवाहयामि ॥
ॐ कर्कोटकाय नम: । कर्कोटकम् आवाहयामि ॥
ॐ अश्वतरये नम: । अश्वतरम् आवाहयामि ॥
ॐ धृतराष्ट्राय नम: । धृतराष्ट्रम् आवाहयामि ॥
ॐ तक्षकाय नम: । तक्षकम् आवाहयामि ॥
ॐ कालियाय नम: । कालियम् आवाहयामि ॥
ॐ कपिलाय नम: । कपिलम् आवाहयामि ॥
ॐ नागपत्नीभ्यो नमः । नागपत्नीः आवाहयामि ॥
ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नम: । ध्यायामि ।
(अनंत आदि नागदेवताओं का नमन कर मैं ध्यान करता हूं ।)

१. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । आवाहयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं का आवाहन करता हूं ।)

२. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । आसनार्थे अक्षतान् समर्पयामि ।
(अनंत आदि नागदेवताओं को आसन के प्रति अक्षता अर्पण करता हूं ।)
(अक्षता चित्र पर चढाएं ।)

३. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । पाद्यं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को पैर धोने के लिए पानी अर्पण करता हूं ।)
(ताम्रपात्र में पानी छोडें ।)

४. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । अर्घ्यं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को अर्घ्य के लिए पानी अर्पण करता हूं ।)
(ताम्रपात्र में पानी छोडें ।)

५. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । आचमनीयं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को आचमन के लिए पानी अर्पण करता हूं ।)
(ताम्रपात्र में पानी छोडें ।)

६. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । स्नानं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को स्नान के लिए पानी अर्पण करता हूं ।)

७. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । वस्त्रं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को वस्त्र अर्पण करता हूं ।)
(वस्त्र चढाएं ।)

८. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । उपवीतं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को उपवीत अर्पण करता हूं ।)
(जनेऊ अथवा अक्षता चढाएं ।)

९. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । चन्दनं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को चंदन अर्पण करता हूं ।)
(अनंतादि नवनागों को चंदन-पुष्प अर्पित करें ।)

१०. नागपत्नीभ्योनमः । हरिद्रां समर्पयामि ।
(नागपत्नियों को हलदी चढाता हूं ।)

११. नागपत्नीभ्योनमः । कुङ्कुमं समर्पयामि ।
(नागपत्नियों को कुंकू चढाता हूं ।)

१२. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । अलङ्कारार्थे अक्षतान् समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को अलंकार स्वरूप अक्षता अर्पण करता हूं ।)
(अक्षता चढाएं ।)

१३. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । पूजार्थे ऋतुकालोद्भवपुष्पाणि तुलसीपत्राणि बिल्वपत्राणि दूर्वाङ्कुरांश्च समर्पयामि।
(अनंतादि नागदेवताओं को वर्तमान ऋतु में खिलनेवाले पुष्प, तुलसीदल, बेलपत्र, दूर्वा अर्पण करता हूं ।)
(फूल, हार इत्यादि चढाएं ।)

१४. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । धूपं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को धूप दिखाएं ।)
(उदबत्ती दिखाएं ।)

१५. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । दीपं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं की दीप से आरती कर रहा हूं ।)
(निरांजन दिखाएं ।)

१६. ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । नैवेद्यार्थे पुरतस्थापित नैवेद्यं निवेदयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं के सामने रखा नैवेद्य निवेदन करता हूं ।)

(दूध-शक्कर, खीलें अथवा कुलपरंपरानुसार खीर इत्यादि पदार्थाें का नैवेद्य दिखाएं ।)

(दाएं हाथ में दो तुलसी के पत्ते लेकर पानी में भिगोकर उससे नैवेद्य पर जल प्रोक्षण करें । तुलसी के पत्ते हाथ में रखें एवं बायां हाथ अपनी छाती पर रखें, आगे दिए मंत्र के ‘स्वाहा’ शब्द कहते हुए दायां हाथ नैवेद्य से नागदेवताओं की दिशा में आगे लें ।)

प्राणाय स्वाहा ।
(यह प्राण के लिए अर्पण करता हूं ।)

अपानाय स्वाहा ।
(यह अपान के लिए अर्पण करता हूं ।)

व्यानाय स्वाहा ।
(यह व्यान के लिए अर्पण करता हूं ।)

उदानाय स्वाहा ।
(यह उदान के लिए अर्पण करता हूं ।)

समानाय स्वाहा ।
(यह समान के लिए अर्पण करता हूं ।)

ब्रह्मणे स्वाहा ।
(यह ब्रह्मा के लिए अर्पण करता हूं ।)

(हाथ में लिया एक तुलसीपत्र नैवेद्य पर एवं एक पत्ता नागदेवता के चरणों में चढाएं । आगे दिए मंत्रों में ‘समर्पयामि’ कहते समय आचमनी से दाएं हाथ पर पानी लेकर ताम्रपात्र में छोडें ।)

ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । नैवेद्यं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को मैं नैवेद्य अर्पण करता हूं ।)

मध्ये पानीयं समर्पयामि ।
(बीच में पीने के लिए पानी अर्पण करता हूं ।)

उत्तरापोशनं समर्पयामि ।
(आपोशन के लिए पानी अर्पण करता हूं ।)

हस्तप्रक्षालनं समर्पयामि ।
(हाथ धोने के लिए पानी अर्पण करता हूं ।)

मुखप्रक्षालनं समर्पयामि ।
(मुख धोने के लिए पानी अर्पण करता हूं ।)

करोद्वर्तनार्थे चन्दनं समर्पयामि ।
(हाथों में लगाने के लिए चंदन अर्पण करता हूं ।)

मुखवासार्थे पूगीफलताम्बूलं समर्पयामि ।
(मुखवास के लिए पान-सुपारी अर्पण करता हूं ।)

ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । मङ्गलार्तिक्यदीपं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को नमस्कार कर मंगलारती अर्पण करता हूं ।)

ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । कर्पूरदीपं समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को नमस्कार कर कपूर की आरती कर रहा हूं ।)
(कपूर की आरती करें ।)

ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । नमस्कारान् समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को नमस्कार करता हूं ।)
(दंडवत प्रणाम (साष्टांग नमस्कार) करें ।)

ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । प्रदक्षिणां समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को नमस्कार कर प्रदक्षिणा कर रहा हूं ।)
(घडी की सुइयों की दिशा में, अर्थात बाएं से दाईं ओर वर्तुलाकार में घूमते हुए प्रदक्षिणा करें ।)

श्रावणे शुक्लपञ्चम्यां यत्कृतं नागपूजनम् । तेन तृप्यन्तु मे नागा भवन्तु सुखदाः सदा ॥
अज्ञानाज्ज्ञानतो वाऽपि यन्मया पूजनं कृतम् । न्यूनातिरिक्तं तत्सर्वं भो नागाः क्षन्तुमर्हथ ॥
युष्मत्प्रसादात्सफला मम सन्तु मनोरथाः । सर्वदा मत्कुले मास्तु भयं सर्पविषोद्भवम् ॥
(श्रावण शुक्ल पंचमी को मैंने जो नागपूजन किया है, उस पूजन से नागदेवता प्रसन्न होकर मुझे सदैव सुख प्रदान करें । हे नागदेवताओ, अज्ञानवश अथवा जाने-अनजाने में मुझसे कोई भूल हो गई हो, तो मुझे क्षमा करें । आपकी कृपा से मेरे सर्व मनोरथ पूर्ण हों । मेरे कुल में कभी भी सर्पविष से भय उत्पन्न न हो ।)

ॐ अनन्तादिनागदेवताभ्यो नमः । प्रार्थनां समर्पयामि ।
(अनंतादि नागदेवताओं को नमस्कार कर प्रार्थना करता हूं ।)
(हाथ जोडकर प्रार्थना करें ।)

आवाहनं न जानामि न जानामि तवार्चनम् । पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वर ॥
(हे परमेश्वर, मैं ‘तुम्हारा आवाहन कैसे करूं, तुम्हारी उपासना कैसे करूं, तुम्हारी पूजा कैसे करूं’, यह नहीं जानता । इसलिए आप मुझे क्षमा करें ।)

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर । यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे ॥
(हे देवेश्वर, मंत्र, क्रिया अथवा भक्ति मैं कुछ भी नहीं जानता, ऐसा होते हुए भी मेरे द्वारा की हुई पूजा परिपूर्ण होकर आपके चरणों में अर्पण होने दें ।)

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतिस्वभावात् । करोमि यद्यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पये तत् ॥
(हे नारायण, शरीर से, वाणी से, मन से, (अन्य) इंद्रियों से, बुद्धि से, आत्मा से अथवा प्रकृति स्वभावानुसार मैं जो भी करता हूं, वह सर्व मैं आपको अर्पण कर रहा हूं ।)

अनेन कृतपूजनेन अनन्तादिनवनागदेवता: प्रीयन्ताम् ।
(इस पूजन से अनंतादि नागदेवता प्रसन्न हों ।)
(ऐसा कहकर दाएं हाथ में पानी लेकर, ताम्रपात्र में छोडें एवं दो बार आचमन करें ।)

सायंकाल विसर्जन के समय आगे दिया श्लोक कहकर पूजे गए नागदेवताओं के चरणों में अक्षता चढाकर विसर्जन करें ।

यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय पार्थिवात् । इष्टकामप्रसिद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च ॥
(पूजा स्वीकार कर सर्व देवता इष्टकामसिद्धि के लिए पुन: आने हेतु अपने-अपने स्थान के लिए प्रस्थान करें ।)

टिप्पणी

१. कुछ स्थानों पर कुलपरंपरा के अनुसार शाम को कथावाचन कर विर्सजन करते हैं । ऐसी कुछ परंपराएं हों, तो उनका पालन करें ।

२. कुछ स्थानों पर पूजन करने के लिए घर के बाहर द्वार के दोनों ओर की भीत (दीवार) पर नागदेवताओं के चित्र बनाकर पूजा करते हैं ।

३. कुछ स्थानों पर प्रत्यक्ष नाग की पूजा की जाती है ।

४. कुछ स्थानों पर एक ही नाग का चित्र बनाकर पूजा की जाती है ।